कौरवों के सेनापति द्रोणाचार्य : पितामह भीष्म के नेतृत्व में दस दिन तक भीषण युद्ध चलता रहा। पांडवों के अनेक वीरों और उनकी सेना की इन दस दिनों में अत्यधिक क्षति हुई। अंतत: अर्जुन के बाणों से छलनी होकर पितामह शर-शय्या | पर गिर पड़े। | पितामह के पश्चात द्रोणाचार्य कौरवों के सेनापति बने। अन्य अनेक योद्धाओं और धर्मपरायण जनों
की भांति द्रोणाचार्य को भी विवशतावश दुर्योधन का पक्ष लेना पड़ा। | द्रोणाचार्य के बारे में सबको ज्ञात था कि धनुर्धर अर्जुन उनका परम शिष्य है और वे पांडवों के प्रति भी मन में दया तथा प्रेम भाव रखते थे। इसीलिए दुर्योधन द्रोणाचार्य को बारम्बार प्रताड़ित करता रहता था कि वे उसके पक्ष में पूरी तरह विश्वसनीय ढंग से युद्ध नहीं कर रहे हैं।
द्रोणाचार्य पांडवों के प्रति प्रेममय अवश्य थे, किंतु वे निश्चय ही दुर्योधन के साथ किसी प्रकार का विश्वासघात नहीं कर रहे थे। लेकिन दुर्योधन के शब्दों में ईर्ष्या और संदेह का भाव झलकता था, इसलिए द्रोणाचार्य उसकी जली-कटी बातों से कभी-कभी खिन्न हो उठते थे।