द्रोणाचार्य ने मांगी गुरु-दक्षिणा : एकलव्य आचार्य द्रोण के दर्शनों से स्वयं को तृप्त कर रहा था। आचार्य ने फिर प्रश्न किया, “कौन है। तुम्हारा आचार्य, वत्स?”
एकलव्य ने कोई उत्तर दिए बिना एक मूर्ति की ओर संकेत किया। सब स्तब्ध रह गए-आचार्य भी। वह मूर्ति उन्हीं की थी। इसी के साथ एकलव्य ने आचार्य द्रोण के चरणों में वह सब निवेदन कर दिया, जो उनसे मिलने के बाद हुआ था। आचार्य का हृदय स्नेह से सिक्त हो उठा। लेकिन वे एकाएक कठोर होकर बोले, “गुरु-दक्षिणा दोगे? उसके बिना विद्या सफल नहीं होती।”
द्रोण-शिष्य बनने की प्रसन्नता ने एकलव्य को उत्साहित किया, ”अवश्य ! आपको जो चाहिए? ‘सोच लो,’ बोलते हुए आचार्य की आवाज कांप रही थी। “क्या सोचना गुरुदेव! मैं धन्य हो गया,” एकलव्य की आवाज भावावेश में रुंध गई। ‘तो ठीक है, मुझे तुम्हारे दाहिने हाथ का अंगूठा चाहिए,” द्रोण ने गुरु-दक्षिणा मांग ली। एकलव्य ने अंगूठा काटकर गुरुदेव के चरणों पर रख दिया। वहां से टप-टप खून बह रहा था। वहां खड़े राजकुमार स्तंभित थे।वे कभी एकलव्य को, तो कभी आचार्य को देख रहे थे।