‘रेखाचित्र’ शब्द चित्रकला से साहित्य में आया है, परन्तु अब वह शब्दचित्र के स्थान में रूढ़ हो गया है।
चित्रकार अपने सामने रखी वस्तु या व्यक्ति का रंगहीन चित्र जब कुछ रेखाओं में इस प्रकार आंक देता है कि उसकी विशेष मुद्रा पहचानी जा सके, तब उसे हम रेखाचित्र की संज्ञा देते हैं। साहित्य में भी साहित्यकार कुछ शब्दों में ऐसा चित्र अंकित कर देता है जो उस व्यक्ति या वस्तु का परिचय दे सके, परन्तु दोनों में अन्तर है।
चित्रकार चाक्षुष प्रत्यक्ष के आलोक में बैठे हुए व्यक्ति का रेखाचित्र आंक सकता है, कभी कहीं देखे हुए व्यक्ति का रेखाचित्र नहीं अंकित हो पाता और दीर्घकाल के उपरान्त अनुमान से भी ऐसे चित्र नहीं आंके जाते। इसके विपरीत साहित्यकार अपना शब्दचित्र दीर्घकाल के अन्तराल के उपरांत भी अंकित कर सकता है। उसने जिसे कभी नहीं देखा हो उसकी आकृति मुखमुद्रा आदि को शब्दों में बांध देना कठिन नहीं होता। शब्द के लिए जो सहज है वह रेखाओं के लिए कठिन है। ‘रेखाचित्र’ वस्तुतः अंग्रेजी के ‘पोट्रेट पेन्टिंग’ के समान है। पर साहित्य में आकर इस शब्द ने बिम्ब और संस्मरण दोनों का कार्य सरल कर दिया है।
मेरे शब्दचित्रों का आरम्भ बहुत गद्यात्मक और बचपन का है मेरा पशु-पक्षियों का प्रेम तो जन्मजात था, अतः क्रॉस्थवेट गर्ल्स कॉलेज के छात्रावास में मुझे उन्हीं का अभाव कष्ट देता था। हमारे स्कूल के आम के बाग़ में रहने वाली खटकिन ने कुछ मुर्गि़यां पाल रखी थीं। जिनके छोटे बच्चों को मैं प्रतिदिन दाना देती और गिनती थी। एक दिन एक बच्चा कम निकला और पूछने पर ज्ञात हुआ कि हमारी नई अध्यापिका उसे मारकर खाने के लिए ले गई है। अन्त में मेरे रोने-धोने और कुछ न खाने के कारण वह मुझे वापस मिल गया। तब मेरे बालकपन ने सोचा कि सब मुर्गी के बच्चों की पहचान रखी जावे, अन्यथा कोई और उठा ले जाएगा। तब मैंने पंजों का चोंच का और आंखों का रंग, पंखों की संख्या आदि एक पुस्तिका में लिखी। फिर सबके नाम रखे और प्रतिदिन सबको गिनना आरम्भ किया। इस प्रकार मेरे रेखाचित्रों का आरम्भ हुआ, जो मेरे पशु-पक्षियों के परिवार में पल्लवित हुआ है। फिर एक ऐसे नौकर को देखा जिसे उसकी स्वामिनी ने निकाल दिया था। पर वह बच्चों के प्रेम के कारण कभी बताशे, कभी फल लेकर बाहर बच्चों की प्रतीक्षा में बैठा रहता था। उसे देखकर मुझे अपना बचपन का सेवक रामा याद आ गया और उसका शब्दचित्र लिखा।
पशु-पक्षियों में सहज चेतना का एक ही स्तर होता है, परन्तु मनुष्य में सहज चेतना, अवचेतना, चेतना तथा पराचेतना आदि कई स्तर हैं। इसी प्रकार उनके मन की भी तीन अवस्थाएं हैं-‘स्थूल मन’ जिससे वह लोक व्यवहार की वस्तुओं को जानता है, ‘सूक्ष्म मन’ से वह वस्तुओं को उनके मूल रूप में जानता है और ‘कारण मन’ जो इन सबमें एक तत्त्व को पहचानता है। लेखक में चेतना के सभी स्तर और मन की सभी अवस्थाएं मिल जाने पर भी कालजयी लिखी जाती है जो जटिल कार्य है। मेरे विचार में अनुभूति के चरम क्षण में जो तीव्रता रहती है उसमें कुछ लिखना सम्भव नहीं रहता, परंतु तीव्रता अवचेतन में जो संस्कार छोड़ जाती है उसी के कारण वह क्षण चेतना में प्रत्यावर्तित हो जाता है और तब हम लिखते हैं।
मेरे रेखाचित्र ऐसे क्षणों के प्रत्यावर्तन में लिखे गए हैं और प्रायः दीर्घकाल के उपरांत भी लिखे गए हैं। एक प्रकार से मैं लिखने के लिए विषय नहीं खोजती हूं, न कविता में न गद्य में। कोई विस्मृत क्षण अचेतन से चेतन में किसी छोटे से कारण से सम्पूर्ण तीव्रता के साथ जाग जाता है तभी लिखती हूँ। दूसरे इन क्षणों का मूल्यांकन कर सकते हैं।
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