भक्तिन महादेवी वर्मा के द्वारा | Bhaktin

Bhaktin

छोटे कद और दुबले शरीरवाली भक्तिन अपने पतले ओठों के कानों में दृढ़ संकल्प और छोटी आँखों में एक विचित्र समझदारी लेकर जिस दिन पहले-पहले मेरे पास आ उपस्थित हुई थी तब से आज तक एक युग का समय बीत चुका है। पर जब कोई जिज्ञासु उससे इस संबंध में प्रश्न कर बैठता है, तब वह पलकों को आधी पुतलियों तक गिराकर और चिन्तन की मुद्रा में ठुड्डी को कुछ ऊपर उठाकर विश्वास भरे कण्ठ से उत्तर देती हैं– ‘तुम पचै का का बताई—यहै पचास बरिस से संग रहित है।’ इस हिसाब से मैं पचहत्तर की ठहरती हूँ और वह सौ वर्ष की आयु भी पार कर जाती है, इसका भक्तिन को पता नहीं। पता हो भी, तो सम्भवत: वह मेरे साथ बीते हुए समय में रत्तीभर भी कम न करना चाहेगी। मुझे तो विश्वास होता जा रहा है कि कुछ वर्ष तक पहुँचा देगी, चाहे उसके हिसाब से मुझे 150 वर्ष की असम्भव आयु का भार क्यों न ढोना पड़े।
[सेवक-धर्म में हनुमान जी से स्पर्द्धा करनेवाली भक्तिन किसी अंजना की पुत्री न होकर एक अनामधन्या गोपालिका की कन्या है-नाम है लाछमिन अर्थात लक्ष्मी।

पर जैसे मेरे नाम की विशालता मेरे लिए दुर्वह है, वैसे ही लक्ष्मी की समृद्धि भक्तिन के कपाल की कुंचित रेखाओं में नहीं बँध सकी।] वैसे तो जीवन में प्राय: सभी को अपने-अपने नाम का विरोधाभास लेकर जीना पड़ता है; पर भक्तिन बहुत समझदार है, क्योंकि वह अपना समृद्धि सूचक नाम किसी को बताती नहीं। केवल जब नौकर की खोज में आई थी, तब ईमानदारी का परिचय देने के लिए उसने शेष इतिवृत्त के साथ यह भी बता दिया; पर इस प्रार्थना के साथ कि मैं कभी नाम का उपयोग न करूँ। उपनाम रखने की प्रतिमा होती, तो मैं सबसे पहले उसका प्रयोग अपने ऊपर करती, इस तथ्य को देहातिन क्या जाने, इसी से जब मैंने कण्ठी-माला देखकर उसका नया नामकरण किया, तब वह भक्तिन जैसे कवित्वहीन नाम को पाकर भी गद्गद् हो उठी।

भक्तिन के जीवन का इतिवृत्त बिना जाने हुए उनके स्वभाव को पूर्णत: क्या अंशत: समझना भी कठिन होगा। वह ऐतिहासिक झूँसी में गाँव-प्रसिद्ध एक अहीर सूरमा की एकलौती बेटी ही नहीं, विमाता की किंवदन्ती बन जाने वाली ममता की काया में भी पली है। पाँच वर्ष की वय में उसे हँड़िया ग्राम के एक सम्पन्न गोपालक की सबसे छोटी पुत्रवधू बनाकर पिता ने शास्त्र से दो पग आगे रहने की ख्याति कमाई और नौ वर्षीय युवती का गौना देकर विमाता ने, बिना माँगे पराया धन लौटाने वाले महाजन का पुण्य लूटा।

पिता का उस पर अगाध प्रेम होने के कारण स्वभावत: ईर्ष्यालु और सम्पत्ति की रक्षा में सतर्क विमाता ने उनके मरणान्तक रोग का समाचार तब भेजा, जब वह मृत्यु की सूचना भी बन चुका था। रोने-पीटने के अपशकुन से बचने के लिए सास ने भी उसे कुछ बताया। बहुत दिन से नैहर नहीं गई, सो जाकर देख आवे, यही कहकर और पहना-उढ़ाकर सास ने उसे विदा कर दिया। इस अप्रत्याशित अनुग्रह ने उसे पैरों में जो पंख लगा दिये थे, वे गाँव की सीमा में पहुँचते ही झड़ गये। ‘हाय लछमिन अब आई’ की अस्पष्ट पुनरावृत्तियाँ और स्पष्ट सहानुभूतिपूर्ण दृष्टियाँ उसे घर तक ठेल ले गईं। पर वहाँ न पिता का चिह्न शेष था, न विमाता के व्यवहार में शिष्टाचार का लेश था। दु:ख से शिथिल और अपमान से जलती हुई वह उस घर में पानी भी बिना पिये उल्टे पैरों ससुराल लौट पड़ी। सास को खरी-खोटी सुनाकर उसने विमाता पर आया हुआ क्रोध शान्त किया और पति के ऊपर गहने फेंक-फेंककर उसने पिता के चिर बिछोह की मर्मव्यथा व्यक्ति की।

जीवन के दूसरे परिच्छेद में भी सुख की अपेक्षा दु:ख ही अधिक है। जब उसने गेहुँएँ रंग और बटिया जैसे मुख वाली पहली कन्या के दो संस्करण और कर डाले तब सास और जिठानियों ने ओठ बिचकाकर उपेक्षा प्रकट की। उचित भी था, क्योंकि सास तीन-तीन कमाऊ वीरों की विधात्री बनकर मचिया के ऊपर विराजमान पुरखिन के पद पर अभिषिक्त हो चुकी थी और दोनों जिठानियाँ काक-भुशुण्डी जैसे काले लालों की क्रमबद्ध सृष्टि करके इस पद के लिए उम्मीदवार थीं। छोटी बहू के लीक छोड़कर चलने के कारण उसे दण्ड मिलना आवश्यक हो गया।

जिठानियाँ बैठकर लोक चर्चा करतीं, और उनके कलूटे लड़के धूल उड़ाते; वह मट्ठा फेरती, कूटती, पीसती, राँघती और उसकी नन्हीं लड़कियाँ गोबर उठातीं, कंडे पाथतीं। जिठानियाँ अपने भात पर सफेद राब रखकर गाढ़ा दूध डालतीं और अपने गुड़ की डली के साथ कठौती में मट्ठा पीती उसकी लड़कियाँ चने-बाजरे की घुघरी चबातीं।

इस दण्ड-विधान के भीतर कोई ऐसी धारा नहीं थी, जिसके अनुसार खोटे सिक्कों की टकसाल-जैसी पत्नी के पति को विरक्त किया जा सकता। सारी चुगली-चबाई की परिणति, उसके पत्नी-प्रेम को बढ़ाकर ही होती थी। जिठानियाँ बात-बात पर घमाघम पीटी-कूटी जातीं; पर उसके पति ने उसे कभी उँगली भी नहीं छुआई। वह बड़े बाप की बड़ी बात वाली बेटी को पहचानता था। इसके अतिरिक्त परिश्रमी, तेजस्वनी और पति के प्रति रोम-रोम से सच्ची पत्नी को वह चाहता भी बहुत रहा होगा, क्योंकि उसके प्रेम के बल पर ही पत्नी ने अलगौझा करके सबको अँगूठा दिखा दिया। काम वही करती थी, इसलिए गाय-भैंस, खेत-खलिहान, अमराई के पेड़ आदि के संबंध में उसी का ज्ञान बहुत बढ़ा-चढ़ा था। उसने छाँट-छाँट कर, ऊपर से असन्तोष की मुद्रा के साथ और भीतर से पुलकित होते हुए जो कुछ लिया, वह सबसे अच्छा भी रहा, साथ ही परिश्रमी दम्पत्ति के निरन्तर प्रयास से उसका सोना बन जाना भी स्वाभाविक हो गया।

धूम-धाम से बड़ी लड़की का विवाह करने के उपरान्त, पति ने घरौंदे से खेलती हुई दो कन्याओं और कच्ची गृहस्थी का भार उन्तीस वर्ष की पत्नी पर छोड़कर संसार से विदा ली। जब वह मरा, तब उसकी अवस्था छत्तीस वर्ष से कुछ ही अधिक रही होगी; पर पत्नी उसे आज बुढ़ऊ कहकर स्मरण करती है। भक्तिन सोचती है कि जब वह बूढ़ी हो गई, तब क्या परमात्मा के यहाँ वे भी न बुढ़ा गये होंगे, अत: उन्हें बुढऊ न कहना उनका घोर अपमान है।

हाँ, तो भक्तिन के हरे-भरे खेत, मोटी-ताजी गाय-भैंस और फलों से लदे पेड़ देखकर जेठ-जिठौतों के मुँह में पानी भर आना स्वाभाविक था। इन सबकी प्राप्ति तो तभी संभव थीं, जब भइयहू दूसरा घर कर लेती; पर जन्म से खोटी भक्तिन इनके चकमें में आई ही नहीं। उसने क्रोध से पाँव पटक-पटककर आँगन को कम्पायमान करते हुए कहा- ‘हम कुकुरी-बिलारी न होयँ, हमारा मन पुसाई तौ हम दूसरे के जाब नाहिं त तुम्हारा पचै के छाती पर होरहा भूँजब और राज करब, समुझे रहौ।’

उसने ससुर, अजिया ससुर और जाने के पीढ़ियों के ससुरगणों की उपार्जित जगह-जमीन में से सुई की नोक के बराबर भी देने की उदारता नहीं दिखाई। इसके अतिरिक्त गुरु से कान-फुँकवा, कण्ठी बाँध पति के नाम पर घी से चिकने केशों को समर्पित कर अपने कभी न टलने की घोषणा कर दी। भविष्य में भी समर्पित सुरक्षित रखने के लिए उसने छोटी लड़कियों के हाथ पीले कर उन्हें ससुराल पहुँचाया और पति के चुने बड़े दामाद को घर जमाई बनाकर रखा। इस प्रकार उसके जीवन का तीसरा परिच्छेद आरम्भ हुआ।

भक्तिन का दुर्भाग्य की उससे कम हठी नहीं था, इसी से किशोरी से युवती होते ही बड़ी लड़की भी विधवा हो गई। भइयहू से पार न पा सकने वाले जेठों और काकी को परास्त करने के लिए कटिबद्ध जिठौतों ने आशा की एक किरण देख पाई। विधवा बहिन के गठबन्धन के लिए बड़ा जिठौत अपने तीतर लड़ानेवाले साले को बुला लाया, क्योंकि उसका हो जाने पर सब कुछ उन्हीं के अधिकार में रहता है। भक्तिन की लड़की भी माँ से कम समझदार नहीं थी, इसी से उसने वर को नापसन्द कर दिया। बाहर के बहनोई का आना चचेरों भाईयों के लिए सुविधाजनक नहीं था, अत: यह प्रस्ताव जहाँ-का-तहाँ रह गया। तब वे दोनों माँ-बेटी खूब मन लगाकर अपनी सम्पत्ति की देख-भाल करने लगीं और ‘मान न मान मैं तेरा मेहमान’ की कहावत चरितार्थ करनेवाले वर के समर्थक उसे किसी-न-किसी प्रकार पति की पदवी पर अभिषिक्त करने का उपाय सोचने लगे।

एक दिन माँ की अनुपस्थिति में वर महाशय ने बेटी की कोठरी में घुसकर भींतर से द्वार बन्द कर लिया और उसके समर्थक गाँववालों को बुलाने लगे। अहीर युवती ने जब इस डकैत वर की मरम्मत कर कुण्डी खोली, तब पंच बेचारे समस्या में पड़ गये। तीतरबाज युवक कहता था, वह निमन्त्रण पाकर भीतर गया और युवती उसके मुख पर अपनी पाँचों उंगलियों के उभार में इस निमन्त्रण के अक्षर पढ़ने का अनुरोध करती थी। अन्त में दूध-का-दूध पानी-का-पानी करने के लिए पंचायत बैठी और सबने सिर हिला-हिलाकर इस समस्या का मूल कारण कलियुग को स्वीकार किया। अपीलहीन फैसला हुआ कि चाहे उन दोनों में एक सच्चा हो चाहें दोनों झूठे; पर जब वे एक कोठरी से निकले, तब उनका पति-पत्नी के रूप में रहना ही कलियुग के दोष का परिमार्जन कर सकता है। अपमानित बालिका ने ओठ काटकर लहू निकाल लिया और माँ ने आग्नेय नेत्रों से गले पड़े दामाद को देखा। संबंध कुछ सुखकर नहीं हुआ, क्योंकि दामाद अब निश्चिंत होकर तीतर लड़ाता था और बेटी विवश क्रोध से जलती रहती थी। इतने यत्न से सँभाले हुए गाय-ढोर, खेती-बारी सब पारिवारिक द्वेष में ऐसे झुलस गये कि लगान अदा करना भी भारी हो गया, सुख से रहने की कौन कहे। अन्त में एक बार लगान न पहुँचने पर जमींदार ने भक्तिन को बुलाकर दिन भर कड़ी धूप में रखा। यह अपमान तो उसकी कर्मठता में सबसे बड़ा कलंक बन गया, अत: दूसरे ही दिन भक्तिन कमाई के विचार से शहर आ पहुँची।

घुटी हुई चाँद को मोटी मैली धोती से ढाँके और मानों सब प्रकार की आहट सुनने के लिए एक कान कपड़े से बाहर निकाले हुए भक्तिन जब मेरे यहाँ सेवकधर्म में दीक्षित हुई, तब उसके जीवन के चौथे और सम्भवत: अन्तिम परिच्छेद का जो अर्थ हुआ, इसकी इति अभी दूर है।

भक्तिन की वेश भूषा में गृहस्थ और बैरागी का सम्मिश्रण देखकर मैंने शंका से प्रश्न किया–‘क्या तुम खाना बनाना जानती हो ?’ उत्तर में उसने ऊपर से होठ को सिकोड़े और नीचे के अधर को कुछ बढ़ा कर आश्वासन की मुद्रा के साथ कहा– ‘ई कउन बड़ी बात आय। रोटी बनाय जानित है, दाल राँध लेइत है, साग-भाजी छँउक सकित है अउर बाकी का रहा।

यह भी पढ़े: Mahadevi Verma | महादेवी वर्मा का जीवन परिचय और कविताएँ

Related Posts

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.