कपटी द्वारा न्याय | Kapti Dwara Nyay

कपटी द्वारा न्याय | Kapti Dwara Nyay : एक जंगल के जिस वृक्ष पर मैं रहता था, उसके नीचे के तने में एक खोखल में कपिंजल नाम का एक चटक (तीतर) भी रहता था।
एक दिन कपिंजल अपने साथियों के साथ बहुत दूर के खेत में धान की नई – नई कोंपलें खाने चला गया। बहुत रात बीतने पर भी जब वह वापस न लौटा तो मुझे चिंता होने लगी। इसी बीच शीघ्रगति नाम का एक खरगोश वहां आया और कपिंजल के खाली स्थान को देखकर उसमें घुस गया।

दूसरे दिन कपिंजल अचानक वापस लौट आया। अपने खोखल में आने पर उसने देखा कि वहां एक खरगोश बैठा हुआ है। उसने खरगोश से अपनी जगह खाली करने को कहा। खरगोश भी तीखे स्वभाव का था, बोला – ‘यह घर अब तेरा नहीं हैं। वापी, कूप, तालाब और वृक्षों पर बने घरों का यही नियम है कि जो भी उनमें बसेरा कर ले, वह घर उसका हो जाता है।

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कपटी द्वारा न्याय | Kapti Dwara Nyay

कपटी द्वारा न्याय | Kapti Dwara Nyay : घर का स्वामित्व केवल मनुष्यों के लिए होता है। पक्षियों के लिए गृह-स्वामित्व का कोई विधान नहीं है।’ उनकी बातचीत को एक जंगली बिल्ली सुन रही थी। उसने सोचा-मैं ही पंच बन जाऊं तो कितना अच्छा है, दोनों को मारकर खाने का अवसर मिल जाएगा।’ यही सोच, हाथ में माला लेकर, सूर्य की ओर मुख करके वह नदी किनारे कुशासन बिछाकर, आंख मूदकर बैठ गई और धर्म का उपदेश करने लगी। उसके उपदेशों को सुनकर खरगोश ने कहा – ‘यह देखो। कोई तपस्वी बैठा है। क्यों न इसी को पंच बनाकर पूछ लें ?’ तीतर बिल्ली को देखकर डर गया, दूर से ही बोला-मुनिवर ! आप हमारे झगड़े का निबटारा कर दें। जिसका पक्ष धर्मविरुद्ध हो, उसे तुम खा लेना।’ यह सुनकर बिल्ली ने आंखें खोलीं और कहा-‘राम-राम। ऐसा न कही। मैंने हिंसा का मार्ग छोड़ दिया है। अत: मैं हिंसा नहीं करूंगी।

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कपटी द्वारा न्याय | Kapti Dwara Nyay : हां, तुम्हारा निर्णय करना मुझे स्वीकार है। किंतु, मैं वृद्ध हूं, दूर से तुम्हारी बातें नहीं सुन सकती, पास आकर अपनी बात कहो |’ बिल्ली की बात पर दोनों को विश्वास हो गया | दोनों ने उसे पंच मान लिया और उसके निकट जा पहुंचे। उचित अवसर पाकर बिल्ली ने दोनों को ही दबोच लिया और मारकर खा गई। कौए की बात सुनकर सभी पक्षी उल्लू को राजमुकुट पहनाए बिना वहां से चले गए। केवल अभिषेक की प्रतीक्षा करता हुआ उल्लू, उसकी मित्र कृकालिका और कौआ वहीं रह गए। तब उल्लू ने कौए से कहा-दुष्ट कौए ! मैंने तेरा क्या बिगाड़ा था जो तूने मेरे कार्य में विध्न डाला ? आज से मेरा और तेरा वंशपरंपरागत वैर रहेगा” बस, तभी से कौओं और उल्लुओं में स्वाभाविक वैर चला आ रहा है। यह कहानी सुनने के बाद मेघवर्ण ने पूछा-‘तात, अब हमें क्या करना चाहिए ?’ स्थिरजीवी ने धीरज बंधाते हुए कहा-‘हमें छल द्वारा शत्रु पर विजय प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए। क्योंकि छल द्वारा ही कुछ धूर्तों ने एक विद्वान ब्राह्मण को मूर्ख बनाकर उसे ठग लिया था।’ मेघवर्ण ने पूंछा-‘वह कैसे ?’ स्थिरजीवी बोला—’सुनाता हूँ, सुनो।’

 

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