महाकाव्य ‘रामायण’ : श्रीनारद जी ने बीज रूप में वाल्मीकि को श्रीराम का चरित्र सुनाया और आशीर्वाद देकर चले गए। वाल्मीकि मुनि ने श्रीरामचरित्र का मंथन करना प्रारंभ किया और मां सरस्वती से प्रार्थना की, ‘हे देवी! मुझे श्रीराम कथा कहने की शक्ति और वाणी प्रदान करो।”
जिस समय वाल्मीकि मुनि देवी सरस्वती की आराधना कर रहे थे, उसी समय एक निषाद ने वन में विहार करते हुए एक क्रौंच पक्षी के जोड़े में से नर क्रौंच को अपने बाण से मार डाला। मादा क्रौंच पक्षी अपने नर की मृत्यु से दुखी होकर विलाप करने लगी। उसकी करुण चीत्कार को सुनकर महर्षि वाल्मीकि का हृदय तड़प उठा और करुणा से द्रवित होकर उनके मुख से निकल पड़ा।
मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः।
यत् क्रौञ्चमिथुनादेकमवधीः काममोहितम् ॥ अर्थात ‘अरे निषाद! तुझे अनंतकाल तक शांति न मिले, क्योंकि तूने इस क्रौंच युगल में से एक को, जो काम मोहित हो रहा था और अतृप्त था, निर्दयतापूर्वक मार डाला है और एक को तड़पने के लिए छोड़ दिया है।’
यही श्लोक ‘रामायण’ के बीज मंत्र के रूप में विख्यात हो गया। मां सरस्वती की कृपा महर्षि वाल्मीकि को प्राप्त हो गई थी। उनकी लेखनी फिर नहीं रुकी।