Maharana Pratap history in hindi | महाराणा प्रताप का इतिहास हिंदी में।

Maharana Pratap history in hindi: महाराणा प्रताप का जन्म 9 मई,सन 1540 को अपने मामकोट पाली में हुआ था। महाराणा प्रताप के  पिता राणा उदय सिंह॥ सिसोदिया वंश के १२ राजा थे। महाराणा प्रताप मेवाड़ के राजा थे, मेवाड़ आज के राजस्थान का एक हिस्सा था, जिस पर राजपूताना लोग शासन  करते थे। महाराणा प्रताप राजा  उदय सिंह और रानी महारानी जैवन्ता बाई के सबसे बड़े पुत्र थे। महाराणा प्रताप अपने युद्ध कौशल, राजनीतिज्ञ, आदर्श संगठनकर्ता और अपने धर्म और देश की स्वतंत्रता के लिए अपना सर्वस्व बलिदान करने को तत्पर रहने वाले महान सेनानी थे.

नाम: प्रताप सिंह जन्म: ९ मई १५४० मृत्यु: २९ जनवरी १५९७ (५६ साल) पत्नी: महारानी अजबदे वंश: सिसोदिया पिता: उदय सिंह ॥ माता: महारानी जैवन्ता बाई धर्म: हिन्दु राज समय: २४ साल ३२७ दिन

हमारा देश भारतवर्ष जैसा है वैसा रहेगा, हमारा हिन्दू धर्म जैसा है वैसा रहेगा पर जल्द ही एक ऐसा समय आएगा जब इन मुगलों का नामों निशान इस भारत की पवित्र मिटटी से मिट जाएगी- महाराणा प्रताप

महाराणा प्रताप परिचय | Maharana Pratap history in hindi

Maharana Pratap history in hindi: महाराणा प्रताप जन्मभूमि की स्वतंत्रता के संघर्ष के प्रतिक है. वे एक कुशल राजनीतिज्ञ, आदर्श संगठनकर्ता और देश की स्वतंत्रता के लिए अपना सर्वस्व बलिदान करने को तत्पर रहने वाले महान सेनानी थे. अपनी संस्कृति और स्वाभिमान की रक्षा के लिए उन्होंने वन वन भटकना तो स्वीकार किया मगर मुग़ल सम्राट अकबर के सामने अधीनता स्वीकार नहीं की. महाराणा प्रताप भारतीय इतिहास के ऐसे महानायक है, जिनकी अनन्य विशेषताओ पर भारतीय इतिहासकारों ही नहीं, पाश्चात्य लेखकों और कवियों को भी अपनी लेखनी चालायी है. प्रताप स्वदेश पर अभिमान करने वाले, स्वतंत्रता के पुजारी, दृढ़ प्रतिज्ञ और एक वीर क्षत्रिये थे. सम्राट अकबर ने अपना समस्त बुद्धिबल, धनबल और बाहुबल लगा दिया था, मगर प्रताप को झुका नहीं पाया था. प्रताप का प्रण था की बाप्पा रावल का वंशज, अपने गुरु, भगवान, और अपने माता-पिता को छोड़ कर किसी के आगे शीश नहीं झुकाएगा. प्रताप अपनी सारी जिंदगी अपने दृढ़ संकल्प पर अटल रहे, वे अकबर को ‘बादशाह’ कह कर सम्बोधित कर दे ऐसा असंभव माना जाता था, उनका मनना था की “अकबर एक तुर्क है और हमेशा एक तुर्क ही रहेगा, मुग़ल पहले हमारे साथ मित्रता का हाथ बढ़ाते है फिर अपनी बुरी दृष्टी हमारे घर की स्त्रियों पर डालते है”, और ये हम सभी भी जानते है की उनका सोचना बिलकुल सही है. महाराणा प्रताप ने अपनी जीवन में एक भविष्यवाणी की थी जो की बिलकुल ही सही हो गयी, वो ये था कि “ हमारा हिन्दू धर्म जैसा है वैसा ही रहेगा, हमारा भारतवर्ष देश जैसा है वैसा ही रहेगा, पर एक दिन ऐसा आएगा की हमारी इस पवित्र भूमि से मुगलों का नामोनिशान मिट जायेगा”. स्वतंत्रता की रक्षा की लिए विषम परिस्थितियों में भी प्रताप ने जो संघर्ष किया, उसकी राजकुलों में जन्मे लोगो के साथ तुलना और कल्पना भी नहीं की जा सकती है . मेवाड़ नरेश होते हुए भी महाराणा का अधिकांश जीवन वनों और पर्वतों में भटकते हुए व्यतीत हुआ, अपने अदम्य इच्छाशक्ति, अपूर्व शोर्य, और रण कौशल, से अंततः मेवाड़ को स्वाधीन करने में सफल हुए. इस वेबसाइट में दिया गया घटनाक्रम और उससे सम्बंधित तिथियों को, यद्यपि गहन अध्यन के साथ लिखा गया है, और किसी विशेष घटना और तिथियों का विरोधाभाष हो सकता है. हमारे इस वेबसाइट का लक्ष्य बस इतना है की आज के नवयुवक प्रेरित हो. मेरे इस मेहनत से मैं आपलोगों के समक्ष महाराणा प्रताप की सम्पूर्ण जीवन पर उनकी संक्षिप्त जीवनी लिखने जा रहा हूँ. पृथ्वीराज चौहान की जीवनी आपलोगों को इतनी पसंद आएगी मुझे इसका अंदाजा भी न था, आशा करता हूँ की आपको मेरी ये मेहनत पसंद आएगी. मैं ये आपको बता देना चाहूँगा की, महाराणा प्रताप की जीवनी पर यह केवल एक मात्र वेबसाइट है, जहाँ उनकी पूरी जीवन का सारांश वर्णन किया गया है, कृपया इस वेबसाइट/पेज में मौजूद छोटी गलतियों को नजरअंदाज करे और हमारा सहयोग करे. अगर आपको कुछ राय और विचार देना है या कुछ सुधार चाहते है, तो आप मुझे अपने कमेंट के माध्यम से जरूर दे. धन्यवाद. जय भारत जय महाराणा.

वीर शिरोमणि:-महाराणा प्रताप बाल्य जीवन | Maharana Pratap history in hindi

Maharana Pratap history in hindi: सिसोदिया वंश के सूरज राणा प्रताप का जन्म 9 मई,सन 1540 (विक्रमी संवत 1597, जयेष्ट सुदी 3, रविवार) को अपनी ननिहाल पाली में हुआ था. उनके पिता राणा उदय सिंह एक महान योद्धा थे. महराणा उदय सिंह की जीवन रक्षा की कहानी पन्ना धाय से जुडी हुई है, उदय सिंह के पिता राणा रतन सिंह के मृत्यु के पश्चात उदय सिंह के बड़े भाई विक्रमादित्य ने राजगद्दी संभाली. विक्रमादित्य अभी थोड़े छोटे थे इसलिए उनकी देखरेख का जिम्मा बनवीर को दिया गया, लेकिन थोड़े ही दिन में बनवीर के मन में राजगद्दी हथियाने के इच्छा जागृत हो गयी. उसने कुछ सामंत को अपने में मिला लिया और जो सामंत उनके विरुद्ध गए उनकी हत्या कर दिया. उसके बाद उसने विक्रमादित्य को भी मार डाला, और फिर चल दिया मेवाड़ के एकलौते वरिश उदय सिंह की हत्या करने. उस समय उदय सिंह सो रहे थे और हाथ में नंगी तलवार लिए बनवीर उदय सिंह को मारने आ रहा था, अचानक से महल में हलचल पैदा हो गयी और ये समाचार पन्ना धाय तक भी पहुँच गयी, उस समय पन्ना धाय ने एक ऐसा बलिदान दिया जो की इतिहास में आज तक किसी ने न दिया होगा, उन्होंने उदय सिंह और अपने पुत्र में से उदय सिंह को चुना और अपने पुत्र को उदय सिंह के स्थान पर लिटा दिया, और उदय सिंह को फूलों की टोकरी में छिपा दिया, जब बनवीर ने पूछा की उदय सिंह कहाँ है, तो उसने अपने पुत्र को उदय सिंह बता दिया और बनवीर ने पन्ना धाय के सामने उसके पुत्र की हत्या कर दिया. पन्ना धाय ने उस फूलों की टोकरी के साथ कुम्भलगढ़ पहुँच गयी. कुम्भलगढ़ में आशा शाह देपुरा को कुंवर उदय सिंह को सौंपकर पन्ना धाय चित्तोड़ वापस चली आई, उस समय उदय सिंह की आयु केवल 15 वर्ष की थी. यहीं पर उदय सिंह ने शिक्षा प्राप्त की. उन्होंने फिर जयवंताबाई से शादी की. प्रताप सिंह इन दोनों के ही पुत्र थे. प्रताप का जन्म ही युद्ध के दौरान हुआ था, एक तरफ उदय सिंह अपनी मातृभूमि को वापस पाने के लिए बनवीर से युद्ध कर रहे थे और इसी शुभ क्षण में भगवान एकलिंग का अवतार लिए प्रताप सिंह धरती में पधारे. उनके जन्म के उत्सव में चार चाँद तब लग गए जब ये खबर आई की महाराणा उदय सिंह बलवीर को हरा वापस चित्तोड़ के किला पर अपना अध्यापत स्थापित कर चुके है, प्रताप के जन्म की उत्सव चित्तोडगढ के किला में ही बड़े धूम धाम से मनाया गया. प्रताप के जन्म के तीन सौ साल पहले ही मुसलमान हमारी भारत माता पर अपना अधिकार जमा चुके थे पर जैसा की हम सब जानते है पूरा भारत कभी भी गुलाम नहीं रहा है उनमे से एक प्रदेश ऐसा भी था जो स्वतंत्रता की सांसे ले रहा था वो क्षेत्र था “राजपुताना”. राजपुताना भारत माता की एक ऐसा अंग था जहाँ के वीरों ने कभी भी आसानी से गुलामी का रास्ता नहीं चुना था, खासकर ये वीरता के पर्याय बाप्पा रावल के वंशज. ये वंश अपने मातृभूमि के लिए अपनी जान लगा देने वालों में से थे, और ये जाती बहुत ही विचित्र युद्ध कौशल से निपूर्ण थी, जिसका सामना करने से बड़े से बड़े सेना भी डरती थी. इस समय भारत की राजनीती व्यस्था में बहुत ही उथल पुथल हो रही थी, प्रताप के जन्म से पहले दिल्ली में मुहम्मद जल्लालुद्दीन अकबर के पिता हुमायूँ का राज था, जो की मुग़ल वंश से सम्बंधित था, उस समय एक और बड़ी ताकत हुमायूँ को बार बार चुनौती दे रहा था वो था अफगान का शेरशाह सूरी. शेरशाह शुरी ने हुमायूँ को सबसे पहले 25 जून 1539 को चौसा के युद्ध में पराजित किया और इसके बाद 17 मई 1540 में बिलग्राम या कन्नोज के युद्ध में बहुत ही बुरी तरह से पराजित कर आगरा और दिल्ली में अपना कब्ज़ा कर लिया. अभी प्रताप तीन साल के नहीं हुए थे की शेरशाह सूरी ने एक बहुत बड़ी सेना के साथ राजपूताने में आक्रमण कर दिया उसकी सेना ने कई इलाको को जीत लिया और कई घर और गाँव को तहस नहस कर दिया. उसके बाद शेरशाह सूरी ने चित्तोडगढ में आक्रमण किया उदय सिंह के पास उसकी सेना का आक्रमण का जवाब नहीं था उनके पास बहुत ही थोड़ी सेना थी इसलिए उदय सिंह ने युद्ध के बजाये कूटनीति का रास्ता चुना, उन्होंने शेरशाह सूरी के सामने अपने शस्त्र दाल दिया, उनके सारे सामंतों ने इसका विरोध किया पर उदय सिंह ने ये भरोसा दिलाया की वो समय आने पर अपना अधिकार वापस लेंगे. उन्होंने शेरशाह सूरी से संधि कर लिया जिसमे उन्हें आध मेवाड़ देना पड़ा, इसके कुछ दिन बाद ही शेरशाह शुरी की मृत्यु 22 मई 1945 को हो गयी, उस समय मेवाड़ में उदय सिंह और शेरशाह सूरी के सेनापति श्मशखान ही राज कर रहा था. राणा उदय सिंह ने तीन विवाह क्रमशः जयवंताबाई, सज्जाबाई, भटियानी धीरबाई जी से किया था. शक्ति सिंह और सागर सिंह सज्जाबाई के पुत्र थे और जगमाल धीरबाई के पुत्र थे. प्रताप बचपन से ही बहुत ही बहादुर और अपनी वीरता दिखाकर लोगो को अचंभित कर जाते थे, वे जितने वीर थे उतने ही स्वाभाव से सरल और सहज थे. वे बहुत ही साहसी और निडर थे. बच्चों के साथ खेल खेल में ही दल बना लेते थे और ढाल तलवार के साथ युद्ध करने का अभ्यास करते थे. अपने लड़ाकू तेवर और अस्त्र-शस्त्र सांचालन में निपुणता के कारण वे अपने मित्रों के बीच काफी लोकप्रिय हो गए थे. उनमे नेतृत्व के गुण इसी अवस्था में जागृत होने लगे थे. प्रताप को गुरु आचार्य राग्वेंद्र का भरपूर साथ मिला उन्हें प्रताप की ताकत और सूज बूझ को सही दिशा प्रदान किया. प्रताप भी अपने गुरु से बहुत सारी शिक्षा प्राप्त की. गुरु राग्वेंद्र ने शक्ति सिंह, सागर सिंह और जगमाल को भी शिक्षा दी. एक बार गुरु ने उन चारों राजकुमारों को तालाब में से कमल का फूल लाने को कहा. गुरु की आज्ञा पाकर चारों राजकुमार तालाब में कूद गए और एक दुसरे के साथ पहले फूल लाने के लिए होड़ करने लगे, की अचानक बीच में ही जगमाल थक गए और डूबने लगे तब प्रताप आगे बढ़कर जगमाल की मदद किये तबतक इधर शक्ति सिंह कमल लेकर गुरूजी के पास पहुँच गए और कहने लगे मैंने सबसे पहले कमल का फूल लेके आया हूँ, गुरु जी बोले प्रताप तम्हारे आगे था पर वो अपने भाई को मदद करने के कारण पहले नहीं पहुँच सका, शक्ति सिंह का सारा हर्ष क्षण भर में ही गुम हो गया. अब गुरु जी ने कहा की अब मुझे देखना है की तुम में से सबसे अच्छा घुड़सवार कौन है ये घोड़े लो और उस टीले में जो सबसे पहले आएगा वो ही विजयी रहेगा. दौड़ शुरू होने से पहले ही जगमाल ने अपने हाथ खड़े कर लिए और कहा मैं नहीं जाऊंगा उस टीले तक मैं थक चूका हूँ, गुरु जी ने जगमाल के मुख में विलाशिता की भावना को परख लिया था इसलिए उन्होंने कहा की कोई बात नहीं जगमाल मेरे साथ ही रहेगा तुम लोग जाओ. प्रताप सबसे पहले उस टीले से लौट आये उसके बाद शक्ति सिंह और सागर सिंह सबसे आखिरी में आया. गुरु जी ने प्रताप की बहुत तारीफ की, इस पर शक्ति सिंह जलभुन गया. शक्ति सिंह भी प्रताप की तरह ही बहुत साहसी था पर प्रताप से तुलना होने पर वो हर बार हार जाता था जो की उसे पसंद नहीं था. एक बार जंगल में गुरु जी चारों राजकुमार को कुछ शिक्षा दे रहे थे की तभी एक बाघ ने शक्ति सिंह को पीछे से झपटने के लिए आगे बढ़ा, शक्ति सिंह डर से हिल भी न पाया था, गुरुवर कुछ कर पाते की प्रताप ने सामने रखा भाला बाघ के सीने में डाल दिया बाघ वही गिर पड़ा, तब शक्ति सिंह के जान में जान आई, शक्ति सिंह ने प्रताप का धन्यवाद किया और गुरु जी ने भी प्रताप की बहुत प्रसंशा की. इस तरह से प्रताप की शिक्षा पूरी हुई. राणा उदय सिंह जब भी प्रताप को देखते थे वो हर्ष उल्लास से भर जाते थे, राणा प्रताप को विश्वास था की उनके बाद मेवाड़ का भविष्य एक सुरक्षित हाथों में जाने वाला है. इसी सोच के साथ लगातार उदय सिंह गुप्त रूप से अपनी सेना को एक जुट करने में लग गए. लगभग 10 साल के लम्बे समय के बाद उदय सिंह ने अफगानों में आक्रमण करने का निर्णय लिया, वे अपने सभी राजकुमारों को किसी सुरक्षित स्थान में पहले पहुंचा देना चाहते थे पर प्रताप जो की अभी केवल 13 साल के ही थे किसी तरह उनको युद्ध की खबर हो गयी, वो इस युद्ध से कैसे अनछुए रह सकते है इसलिए अपने पिता के आज्ञा के बगैर उस युद्ध में कूद गए, थोड़े ही समय में युद्ध शुरू हो गया, और प्रताप इतनी कम उम्र में ही अपनी प्रतिभा की चमक चारों ओर बिखेरने लगे थे, इस युद्ध में कई राजपूत सिपाहियों ने प्रताप का भरपूर साथ दिए, बहुत ही मुस्किल से किसी तरह इस युद्ध में राणा उदय सिंह विजयी रहे, जब उन्हें पता चला की प्रताप भी इस युद्ध में सम्मिलित थे उनकी आँखे आशुओं से नम हो गयी और उन्होंने प्रताप को गले लगा लिया. अब सम्पूर्ण मेवाड़ में उदय सिंह का राज था. इस तरह से प्रताप सिंह की खायाति पूरे राजपूताने में फैलने लगी, मेवाड़ की प्रजा प्रताप के स्वाभाव से अत्यंत प्रसन्न रहती. क्योंकि कभी कभी प्रताप तो उनकी मदद करने में इतने खो जाते थे की वे भूल जाते थे की वो एक राजकुमार है. और इस तरह प्रताप अपने वीरता की गाथा को बिखरते हुए बड़े होने लगे.

अकबर का चितौड़गढ़ में आक्रमण | Maharana Pratap history in hindi

Maharana Pratap history in hindi: जब प्रताप 14 वर्ष के थे तब मुहम्मद जल्लालुद्दीन अकबर ने 13 वर्ष की उम्र में दिल्ली का सम्राट बना. उस समय वो बहुत छोटा था इसलिए बैरम खान की संरक्षण में वो दिल्ली की राजगद्दी संभाला. राजपूताने को जीतना शुरू से ही उसकी ख्वायिश थी. सम्राट बनते ही उसने आमेर के कछावा राजाओं से संधि कर ली और फिर शीघ्र ही महाराणा उदय सिंह के पास प्रस्ताव भेज दिया की वो मुग़ल-सत्ता की अधीनता को स्वीकार कर ले. महाराणा उदय सिंह ने इस संधि का जवाब बहुत ही कड़े शब्दों में दिया और जवाब में लिख दिया की हम कभी किसी विदेशी ताकत के आगे नहीं झुक सकते है. इससे क्रोधित होकर अकबर ने 20 अक्टूबर सन 1567 एक बड़ी विशाल सेना लेकर बैरम खान के नेतृत्व में चितौड़ पर आ धमका. चितौड़ को मुग़ल सेना ने चारों ओर से घेर लिया गया इसके बावजूद मुग़ल सेना चितौड़ के अन्दर न घुस पायी, मैं आपको बता देना चाहूँगा की चितौड़ का किला सबसे बड़ा किला माना जाता है. 6 महीने तक महाराणा उदय सिंह, प्रताप और समस्त चितौड़गढ़ के सेना ने बड़े ही वीरता के साथ मुगलों को सामना किया. परन्तु राशन पानी बंद हो जाने के कारण उदय सिंह मुगलों का ज्यादा देर तक सामना न कर सके लगभग 6 महीने की भीषण संग्राम के बाद 23 फरवरी को उदय सिंह को समस्त परिवार के साथ चितौड़ छोड़ना पड़ा, उन्होंने पहाड़ियों से घिरे सुरम्य स्थल उदयपुर को अपनी राजधानी बनाया और फिर वहीँ रहने लगे. एक दिन महाराणा उदयसिंह अपने पुत्र प्रताप के साथ उदयपुर की वादियों में टहलने निकले दोनों सफ़ेद घोड़े पर सवार थे. महाराणा उदय सिंह का शरीर ज्यादा स्वस्थ नहीं दिखाई दे रहा था, वो लम्बे समय से बीमार थे, चितौड़गढ़ में अकबर का कब्ज़ा, राजपूतानियों का जौहर, और 30,000 मासूम नागरिकों की निर्मम हत्या ने उदय सिंह को अन्दर से झकझोर दिया था,जिसका इतिहास उदय सिंह के चेहरे में साफ़ साफ़ देखा जा सकता था. प्रताप युवा थे, प्रदीप्त सूर्य की तरह उनका चेहरा दैदीप्यमान था. घोड़े पर सवार कुंवर प्रताप साक्षात् देव लग रहे थे. घने जंगल में उदय सिंह ने अपना घोडा रोका और उतर गए, प्रताप भी घोड़े से उतर गए. उदयसिंह ने सूर्य की किरणों को देखते हुए कहा की हम राजपूतों का जीवन मातृभूमि की रक्षा करने के लिए होता है, हम इसकी रक्षा अपने प्राण का न्योछावर कर के भी करते है, तुम जानते हो की मुग़ल सम्राट अकबर की नजर पुरे मेवाड़ में है. इसपर प्रताप ने कहा की आप चिंता न करे पिताजी आपके पुत्र प्रताप की भुजा में इतनी शक्ति है की वो हर उस शत्रु का सामना कर सकता है जो मेवाड़ पर अपनी बुरी दृष्टी डालेगा. इसपर उदयसिंह ने कहा की मुझे मालूम है बेटे, पर आजकल हम राजपूतों का दिन कुछ अच्छा नहीं रहा है, राजपूताने के कई राज्य अकबर से जा मिले है, और तुम्हारा बूढ़ा पिता भी अपने कई नागरिकों को नहीं बचा पाया, प्रताप ने कहा की आप धैर्य रखिये पिताजी मैं प्रण करता हूँ की जब तक मैं शत्रु से उस महाविनाश का बदला नहीं ले लूँगा, तब तक चैन से नहीं बैठूँगा. इसे देख कर उदय सिंह के आँखों में आंसू आ गए, उन्होंने कहा की पर “प्रताप तुम्हारे छोटे भाई जगमाल और शक्ति सिंह दोनों ही तुमसे आयु के साथ साथ बुद्धि में भी छोटे है मुझे दर है की कहीं मेरी मृत्यु के बाद शिशोदिया वंश…….” प्रताप ने कहा की नहीं नहीं पिताजी मैं अपने विवेक के साथ उन दोनों को अपने साथ बांधने का प्रयत्न करूँगा. उदय सिंह की हालत अब और भी खराब हो गयी थी वो अपने घोड़े पर बैठे और वापस अपने महल की ओर वापस चले गए. महल पहुँचने पर छोटी रानी भटियानी ने उदय सिंह का स्वागत किया और उन्हें अपने कक्ष में ले गयीं. और वहां पर उन्होंने अपने छोटे बेटे जगमाल को राजा बनानें की इच्छा व्यक्त कर दी. उदय सिंह को पहले से ही यह एहसास था की छोटी रानी जगमाल को राजा बनाना चाहती है, परन्तु आज छोटी रानी ने उदय सिंह को इस प्रकार से घेर लिया था की उससे उनका चैन और सुख जाता रहा, वे परेशान हो गए और अंततः जगमाल को उतराधिकारी घोषित करना पड़ा. उसके उतराधिकारी बनने के कुछ दिन बाद ही महाराणा उदय सिंह स्वर्ग सिधार गए. जिसने भी यह सुना की जगमाल मेवाड़ का उतराधिकारी है वह उदय सिंह की आलोचना करने लगा. सारे प्रजा में निराशा की लहर दौड़ गयी. परन्तु प्रताप ने इसका जरा भी विरोध नहीं किया उन्होंने अपने पिता के फैसले का सम्मान किया और जगमाल को मेवाड़ का नया राणा बनने में ख़ुशी जाहिर किया.

जगमाल का उत्ताराधिकारी घोषित करना | Maharana Pratap history in hindi

Maharana Pratap history in hindi: मेवाड़ की सारी प्रजा और सभी राजपूत युवक और सामंत जिनकी भुजा राणा उदय सिंह में हुए आक्रमण का बदला लेने के लिए मचल रही थी उनको प्रताप का राणा न बन पाने की फैसला बिलकुल भी अच्छी नहीं लग रही थी. पर वो सभी महल की राजनीती के विरुद्ध नहीं जा पाए. प्रताप के मन में अपने पिता के प्रति अपार श्रद्धा और आदर था, और साथ ही उनके मन में अपने पुरे परिवार के प्रति सदभाव था इसलिए जगमाल का उन्होंने जरा भी विरोध न किया, बल्कि उन्होंने अपने सारे सामंत को अच्छी तरह से समझा बुझा कर जगमाल के साथ कर दिया. रानी भटियानी प्रताप की शोर्य और सामंतों के बीच उनके प्रभावों से भली भांति परिचित थी, उसे सर था की प्रताप कहीं जगमाल से राज्गद्दी न छीन ले, इसलिए रानी भटियानी ने जगमाल को सावधान कर दिया था की वो प्रताप से जरा संभल कर रहे. जगमाल किसी भी कीमत में मेवाड़ की गद्दी संभालने योग्य न था, वो भोग विलास में सदैव डूबा रहता था, जगमाल प्रताप की मदद से अपने सभी कमजोरियों को दूर कर सकता था पर जगमाल प्रताप को अपने पास तक भटकने नहीं देता, हर बात में प्रताप को निचा दिखाना और अपने राणा होने का गलत फायदा उठाना अब तो जगमाल के लिए ये आम बात हो गयी थी. वो खुद अपने देवता सामान बड़े भाई प्रताप को शक की नजरों से देखने लगा था. जगमाल की राजनितिक सूझ-बुझ कमजोर थी, राज काज को संभालने एवं व्यक्ति को परखने वाली पैनी नजर उसमे बिलकुल भी न थी, वो अब केवल अपने आप को बहुत महत्व देने लगा था. अपने सभी विशेष सामंतों की अनसुनी करना और केवल अपने फैसले में ही अटल रहना उसकी खूबी बनती चली गयी. कई पुराने सामंत उससे असंतुष्ट रहने लगे. प्रताप अपने स्तर से राज्य की स्थिति को संभालने में प्रयासरत थे. पर जब उन्होंने देखा की राज्य की भविष्य अब अंधकारमय हो चूका है तो उन्होंने एक बड़े भाई के अधिकार से जगमाल को समझाने जा पहुंचे. जगमाल ने प्रताप को देखकर उपरी तौर से पूरा आदर दिखाया. प्रताप ने जगमाल को समझाया की राज्य का बोझ अकेले नहीं उठाया जा सकता इसके लिए उसे सरदारों के राय की आवश्यकता पड़ती है इसलिए तुम्हे पुराने सरदारों के साथ विश्वास को बनाये रखना चाहिए और उनका पूरा पूरा समर्थन और सम्मान देना चाहिए, इतना कहकर प्रताप चले गए. इस बारे में जगमाल ने अपने कुछ चापलूस सामंतों के साथ विचार-विमर्श किया, उन्हें लगा की अगर जगमाल ऐसा करेगा तो उनकी सत्ता खतरे में पद जाएगी, इसलिए उन्होंने जगमाल को अपने ही तरीकों से समझाने लगे, की अगर राणा आप है तो आपकी ही आदेश को सबको माननी पड़ेगी, प्रताप को इस मामले में हस्तक्षेप न करने दे अन्यथा आपका राज वो आपसे छीन लेगा. अंत में निश्चय यह हुआ की पुराने सरदारों का असंतोस स्वाभाविक नहीं है उन्हें प्रताप ने अवश्य उकसाया होगा, और उन्हें महत्व देने के पिछे प्रताप की ही कोई चाल होगी. जगमाल ने अपने चापलूस सामंतों से कहा की राजनीती कहती है की शत्रु सर उठाये उससे पहले ही ……..उसका सर कुचल देना चाहिए. माँ ठीक कहती है प्रताप मेरा भाई नहीं राजनितिक शत्रु है, आखिर मैंने उसका अधिकार छिना है वो चैन से कैसे बैठ सकता है. इतना कहकर जगमाल ने अपने दूत को भिजवा कर तुरंत ही प्रताप को बुला भेजा. उसने प्रताप से कहा की मेवाड़ का राणा मैं हूँ आप नहीं, आपको मेरे राज काज में कोई आपत्ति न ही हो तो अच्छा है, इतनी कर्कश शब्दों को सुनकर प्रताप चिल्लाये “जगमाल” और उनका हाथ तलवार तक चला गया पर जल्द ही उन्होंने अपने आप को संभाल लिया. जगमाल ने कहा “चीखो मत प्रताप सिंह जो मैं कहता हूँ उसे ध्यान से सुनो-मेवाड़ का राणा होने के हैसियत से मैं ये आदेश देता हूँ की तुम अभी इसी वक़्त मेवाड़ की सीमा से बाहर चले जाओ. अर्थात “मातृभूमि से निर्वासन” हाँ तुमने सही सुना मातृभूमि से निर्वासन, प्रताप की भुजाये भड़क उठी, उनके दोनों नेत्र लाल हो गयी, एकाएक उनकी दाहिने हाथ उनके कमर में बंधी तलवार तक पहुंची, उनके तलवार में हल्का सा खिचाव भी पड़ा पर तलवार निकलते निकलते रह गयी, किसी तरह प्रताप ने अपने अपमान की घूंट को पीकर रह गए. प्रताप एक सच्चे राजपूत थे, अगर उन्हें अपमान और मौत में से चुनाव करना होता तो वो मौत ही चुनाव करते पर आज कुछ स्थिति ही दूसरी थी, क्या वो अपने भाई से बदला लेते ये उनके संस्कार के अनुकूल नहीं था इसलिए प्रताप वहां से चुपचाप चले गए. प्रताप बहुत ही विवेकी और आशावादी थे इसलिए उन्होंने जगमाल का तनिक भी विरोध न किया. प्रताप का मातृभूमि से निर्वासन की खबर सारे मेवाड़ में आग की तरह फ़ैल गयी. सारी प्रजा जगमाल के विरुद्ध हो गयी. प्रताप को दण्डित करने का अर्थ था की मेवाड़ की जनता को दण्डित करना. प्रताप की ख्यति उस समय तक भारतवर्ष के कोने कोने तक पहुँच चुकी थी, एक मात्र राजपूत जिसने न केवल अकबर के सामने घुटने न टेके बल्कि अकबर की विशाल सेना की भी कई दिनों तक दांत खट्टे कर के रख दिए और भी कई सारी खूबियों के कारण प्रताप बहुत प्रचलित हो चुके थे इसलिए उनमे न केवल राजपूत जाती और मेवाड़ की ही नजरें टिकी थी वरन सम्पूर्ण भारतवर्ष के अकबर अधीन राजाओं की नजर भी थी और इस तरह से उनका घोर अपमान कर निर्वासन कर देना किसी तरह से क्षमा योग्य न था. अकबर के सेना चित्तोडगढ में अभी भी मुग़ल ध्वज लहराए हुए है और इस दुखद समय में एक और झटका मेवाड़ के जनता कभी में इसे स्वीकार नहीं करेगी. सारे मेवाड़ के लोग हड़ताल करने लगे और जगमाल को बुरा भला कहने लगे. कई सामंत भी जगमाल के विरुद्ध हो गए.

प्रताप का महाराणा के रूप में संकल्प | Maharana Pratap history in hindi

Maharana Pratap history in hindi: प्रताप के निर्वासन की खबर सुन कर पुरे मेवाड़ नगरी की प्रजा में आक्रोश से भर गयी, कई लोग प्रताप की गुणगान करते नही थक रहे थे। कुछ गाँव वाले अपने में बात कर रहे थे की प्रताप ही मेवाड़ के असली महाराणा है, उदय सिंह छोटी रानी भटियानी से ज्यादा प्यार करते थे इसलिए जगमाल को राजा बना दिया जो की दिन भर नशे में धुत रहता है। इसपर दुसरे गाँव वाले ने कहा की सही कहा उस दिन 6 मुग़ल सैनिक हमारी गाँव के एक लड़की के साथ दुष्कर्म कर रहे थे तभी प्रताप वहां पहुँच कर अकेले ही उन छः मुग़ल सैनिकों से भीड़ गए और उसका संहार कर उस लड़की की इज्जत को बचाया। इतना सुनते ही दुसरे व्यक्ति ने कहा की हाँ हाँ सही कह रहे हो एक दिन मेरी बैल गाडी खेत में कीचड़ में फंस गयी थी कितनी कोशिश के बाद भी वह नहीं निकला, प्रताप ने जैसे ही मुझे देखा वो एक राजकुमार होते हुए भी मेरी मदद के लिए कीचड़ में घुस आये, एक महराणा होने के सारे गुण प्रताप में मौजूद है, प्रताप ही हमारे महाराणा है और हम उनका निर्वासन कैसे देख सकते है, राजपूताने के कई राजा ने तो अकबर के सामने घुटने टेक दिये है एक प्रताप ही उसको चुनौती दे सकते है, वे हमारे स्वाधीनता के अंतिम आशा है और किसी भी हालत में उनका निर्वासन नहीं होने देंगे। उदयपुर के कई सरदार जगमाल के इस फैसले से पहले से ही बौखलाए हुए थे, उनकी सलाह के बिन जगमाल ने इतनी बड़ी फैसला कैसे कर लिया था। प्रताप के मामा झालावाड़ नरेश इस फैसले से बहुत ज्यादा क्षुब्ध थे, मेवाड़ के कई सामंतों ने अपनी आक्रोश को उनके सामने व्यक्त किया। झालावाड के नरेश ने अपनी नेतृत्व सामंतों को प्रदान किया और यह निर्णय लिया गया की जगमाल को गद्दी से हटाया जायेगा और प्रताप को मेवाड़ का महाराणा बनाया जायेगा। इतना निर्णय लेकर वो महल की ओर जाने लगे, रास्ते में उन्हें मेवाड़ के गाँव के कई लोग मिले। सामंतों को आता देख सभी लोग ने चुप्पी साध ली, उसमे से एक व्यक्ति ने आगे बढ़ कर कहा की ये हमारे साथ क्या हो रहा है सरदार, हमारे साथ इतना बड़ा अन्याय क्यो हो रहा है ? जहाँ प्रताप को मेवाड़ का राणा होना था वहां एक विलासी बैठा मौज कर रहा है, और हमारे असली महाराणा को निर्वासन? सरदार उनका दुःख समझ रहे थे, इस पर चुण्डावत कृष्ण जो की सामंतों के सरदार थे आगे बढ़ के कहा की हम खुद ही मेवाड़ की राजनीती से विस्मित है और आप सब हमारा विश्वास करे की मेवाड़ के असली उत्तार्धिकारी को ही मेवाड़ का महाराणा बनाया जायेगा ये हम सब का वचन है। इतना बात सामंतों और लोगो के बीच हो ही रहा था की साधारण वेशभूषा में प्रताप अपने घोड़े में कुछ सामन के साथ नजर आये, सभी आश्चर्य से प्रताप को देखते रह गए, सभी को समझते ये देर न लगी की प्रताप निर्वासन के फैसले के अनुसार मेवाड़ को छोड़ कर जा रहे है। सभी लोगों ने प्रताप का रास्ता रोक लिया और फिर चुण्डावत कृष्ण जी ने आगे बढ़कर कहा की “रुक जाइये प्रताप आप मेवाड़ की सीमा को नहीं लांघेगे, मेवाड़ की समस्त जनता आपका प्रतीक्षा कर रहे है”। प्रताप ने अपने घोड़े की लगाम को खींचते हुए कहा की लेकिन चुण्डावत जी जगमाल मेवाड़ का राजा है और उसने मुझे निर्वासन का आदेश दिया है, इसपर चुण्डावत गरजने लगे और कहने लगे की “जगमाल निरा मुर्ख है, उसे राज काज की समझ कहाँ है और ये बात आपको और हम सब को भली भांति अच्छी तरह से पता है। आप ही मेवाड़ के राणा है इसलिए आपको ही मेवाड़ के राजगद्दी में बैठना होगा। उदयपुर के साथ साथ सारे मेवाड़ की जनता और सामंतों की ओर से सन्देश लेकर मैं आपके पास आया हूँ। क्या आपको अपने पिता से किया वायदा याद नहीं चित्तोडगढ अभी भी मुगलों के हाथ में है और आपको ही उसे मुगलों से आजाद करवाना है। इसपर प्रताप ने बड़े ही विनम्रता से कहा को जगमाल मेरा छोटा भाई है उसके विरुद्ध मैं तलवार नहीं उठाऊंगा, मुझे अपने भाई के साथ युद्ध कर राज काज भोगने की कोई इच्छा नहीं है। चुण्डावत निकट आते हुए कहा की आपको वापस चलना ही होगा अन्यथा मेवाड़ आपके बिना अनाथ हो जायेगा, मेवाड़ की जनता ये सदमा बर्दाश्त नहीं कर पायेगी। उनका धैर्य का बाण टूट जायेगा। प्रताप ने कहा की क्या एक एक भाई को भाई के विरुद्ध विद्रोह करना शोभा देगा, विद्रोह तब होगा जब आप नहीं चलोगे, मेवाड़ की जनता अपना संतुलन खो बैठेगी और विद्रोही सरदार अपने म्यान से तलवार निकाल आएगी, और पूरा का पूरा मेवाड़ गृह युद्ध की चपेट में आ जायेगा। इस तरह काफी देर तक बहस करने के बाद प्रताप को एहसास हो गया की चुण्डावत सही कह रहे है, मेवाड़ को उनकी आवश्यकता है और उन्हें मेवाड़ की उन्हें। वे अपनी जन्मभूमि, मातृभूमि से दूर कैसे जा सकते थे,उन्हें दूर जाना भी नहीं चाहिए, राज्य का अधिकार उन्हें सुख भोगने के लिए नहीं बल्कि उन्हें स्वाधीनता की रक्षा करने के लिए उन्हें करना ही पड़ेगा, यह एक चुनौती है और इससे भागना अब मात्र एक पलायन होगा। प्रताप और सारे सामंतों ने अपना घोडा उदयपुर की ओर मोड़ लिया। इधर जगमाल प्रताप के निर्वासन से निश्चिन्त हो गया था की उसका एकमात्र कांटा को उसने निकाल फेंका है, वह अब और ज्यादा विलाशभोगी हो गया था, उसके चापलूस सामंत अब राजकोष के धन में सेंध लगाने लगे थे। अगली ही सुबह जगमाल ने अपने सामने चुण्डावत कृष्ण के साथ प्रताप को देखा तो उसे अपने आँखों में विश्वास न हुआ, रात भर पि हुई मदिरा की नशा एक पल में ही ओझल हो गयी। जगमाल सिंहासन में बैठा था सभी चापलूस सरदार अपनी अपनी ओट लिए हुए था। इतने में चुण्डावत ने अपनी गर्जना भरे स्वर में कहा की “जगमाल छोड़ दो ये सिंहासन” जगमाल ने कहा –“चुण्डावत सरदार आप होश में तो है” “हाँ कुमार” अब हम सब होश में आ गए है। उस दिन हम सब वास्तव में होश में नहीं थे जबब महाराणा उदय सिंह ने तुम्हे राणा बनाया था। तुम इसके तनिक भी योग्य नहीं हो। हमने तुम्हे राणा के रूप में अवश्य ही स्वीकार किया है पर तुम इसके जरा भी योग्य नहीं हो तुमने इस सिंहासन का अपमान किया है। जगमाल क्रोधित हो गया और अपने सैनिकों को आदेश दिया की पकड़ लिया जाए इस चुण्डावत सरदार को। सभी सैनिकों के साथ साथ सभी सरदारों ने भी अपने आँखों को झुका लिया, उनके हाथ तलवार की मुठ में अवश्य थे पर चुण्डावत के विरुद्ध जाना उनके वश में न था, किसी ने भी उस समय अपनी तलवार अपने म्यान से निकालने की चेष्टा तक न की, जगमाल ने सभी सामंतों के तरफ नजर दौड़ाई सभी शांत थे। पुरे दरबार में सन्नाटा छा गया था। जगमाल झट से अपनी तलवार निकाला और प्रताप की ओर देखते हुए बोला अपनी तलवार निकालो प्रताप अभी फैसला हो जायेगा। प्रताप का हाथ झट से तलवार पर गया पर छू कर वापस आ गया, वो चुण्डावत को देखने लगे, जैसे की वो कहना चाहते हो की उन्हें सिंहासन तो चाहिए लेकिन इस तरह नहीं। चुण्डावत समझ गए थे की प्रताप क्या कहना चाहते है इसलिए उन्होंने झट से अपनी तलवार निकलते हुए कहा की सभी लोग अपनी तलवार निकाल कर इसे बता दो की हम सब प्रताप है, चुन्दावत की आदेश सुनते ही सभी ने अपने तलवार को म्यान से बाहर निकाल लिया और जगमाल को घेर लिया। इतने देखते ही जगमाल का सारा नशा पल भर में उड़ गया। सभी सरदारों ने एक स्वर में चिल्लाने लगे की हम सब प्रताप के साथ है। इसे देख कर जगमाल चुण्डावत सरदार कृष्ण के प्रति प्रतिशोध की भावना से धधक उठा वो नंगी तलवार लिए चुण्डावत की ओर लपके और उनमे वार किया, चुण्डावत सरदार पहले से तैयार खड़े थे उन्होंने एक वार में ही जगमाल के तलवार की दो टुकड़े कर डाले। इतना देख कर दो सैनिकों ने जगमाल को पकड़ लिया। उसी समय प्रताप को पुरे विधि अनुसार प्रताप को राणा घोषित किया गया। चुण्डावत ने स्वयं अपने हाथों से उनके मस्तक में टीका चढ़ाया और राजश्री छत्र पहनाया। और उनका अभिनन्दन करते हुए कहा की अब आप ही हमारे आन, बान और शान हो। मेवाड़ ही नहीं पूरा भारतवर्ष आपके शोर्य की वीर गाथा कहे। अपने बाहुबल से एक नया इतिहास लिखो, ऐसी हमारी कमाना है। प्रताप बहुत गंभीर थे, गंभीर चेहरे में हलकी सी मुस्स्कान को बड़ी मुस्किल से बाहर आने दे रहे थे। फिर कुछ शब्द उभर कर आये, मेवाड़ के महाराणा की जय, हमारे महाराणा प्रताप की जय। सारे दरबार में महाराणा प्रताप की जय जयकार होने लगी। यह जयजयकार इतनी ऊँची थी की सारा महल इस ध्वनि से गूँज उठा था, सभी सामंतों में ख़ुशी की लहर से छाई हुई थी, जयजयकार की आवाज सुनकर जगमाल सिहर उठा था। मेवाड़ की सेना को और जनता को जब ये समाचार मिला की प्रताप अब महराणा बन चुके है तब उनमे ख़ुशी का ठिकाना न रहा, यूँ लगा मानो अनाथ बच्चे को उसका खोया हुआ माता-पिता मिल गए हो। सारी मेवाड़ की धरती महाराणा प्रताप की जय, मेवाड़नाथ की जय से कांप उठी। तभी एक सैनिक ने सलीके से सजाई हुई बप्पा रावल की तलवार को लिए दरबार में उपस्थित हुआ। चुण्डावत ने उस तलवार को उठाई और महाराणा प्रताप के हनथो में दे दी। सारा मेवाड़ में मानो आज कोई उत्सव मनाया जा रहा हो ऐसा प्रतीत होने लगा था। इस तरह से चुण्डावत सरदार ने तलवार देने की रस्म पूरी की। महाराणा प्रताप को तलवार देने के बाद चुण्डावत सरदार ने कहा की –“हे क्षत्रिये कुल दिवाकर ये हमरे पूर्वज बाप्पा रावल की तलवार है जिसे हम सदियों से चितोड़ की देवी मानते है आज वही चितौड़ मुगलों के कब्जे में है। मुगलों ने जब चितौड़ में कब्ज़ा किया था तब वहां के हर एक मंदिर और प्रतिमाओं की टुकड़े टुकड़े कर दिए, वहां के पंडितों और विद्वानों को अपमानित किया, राजपूतों पर मुगलों की अत्याचार की गवाह है ये तलवार, तब से समस्त मेवाड़ मुगलों से पप्रतिशोध के ज्वाला में जल रहा है, चितौड़ की पराजय से मेवाड का मस्तक झुक गया है, मैं ये तलवार इसी आशा के साथ सौंपा हूँ की आप चितौड़ के अपमान का बदला लेंगे और फिर से चितौड़ को मेवाड़ का भाग बनायेगे। ये आपके मस्तक में चढ़ा मुकुट आपके शोभा और वैभव नहीं है अपितु आपके लिए एक चुनौती है, की आप हमारा खोया हुआ स्वाभिमान और स्वाधीनता वापस लायेंगे। प्रजा जनों की रक्षा और विकास की चुनौती भी आप ही की जिम्मेदारी होगी। इसतरह तालियों की गडगड़ाहट के बिच चुण्डावत सरदार कृष्ण का भाषण समाप्त हुआ। फिर महाराणा प्रताप उठे उन्होंने तालियों के बीच सबका अभिवादन किया और फिर अपना तलवार को खींचते हुए कहा की मैं राणा प्रताप बप्पा रावल की इस पूजन्य तलवार की सौगंध खा कर कहता हूँ की इस तलवार को सौंपकर चुण्डावत जी नें जो दायित्व मुझे सौंपा है उसे मैं अवश्य पूरा करूँगा। अपने स्वाभिमान और मातृभूमि की रक्षा के लिए अपना जीवन समर्पित कर दूंगा। मैं कभी किसी शत्रू के सामने अपना मस्तक नहीं झुकाऊँगा। अपने शत्रु से चितौड़गढ़ को वापस लूँगा और चितौड़ पतन के समय हम पर हुए अत्याचारों का बदला लेना मेरा परम ध्येय रहेगा। इसके बाद प्रताप मौन हो गए और फिर इसके बाद प्रताप ने वो संकल्प लिया जो की प्रताप के जीवन का मुख्य भाग था और जिसके लिए वो हमेशा हमेशा के लिए प्रचलित रहेंगे उन्होंने प्रण लिया की:- ”माँ भवानी और भगवान् एकलिंग (शंकर) की सौगंध खाकर प्रतिज्ञा करता हूँ , कि जब तक मेवाड़ का चप्पा-चप्पा भूमि को इन विदेशियों से स्वतंत्र नहीं करा लूँगा, चैन से नहीं बैठूँगा। जब तक मेवाड़ कि पुण्यभूमि पर एक भी स्वतंत्रता का शत्रु रहेगा, तब तक झोपडी में रहूँगा, जमीं पर सोऊंगा, पत्तलों में रुखा-सुखा खाना खाऊंगा, किसी भी प्रकार का राजसी सुख नहीं भोगूँगा, सोने-चांदी के बर्तन और आरामदायक बिस्तर की तरफ कभी आँख उठाकर भी नहीं देखूंगा ! बोलिए, क्या आप सब लोग मेरे साथ कष्ट और संघर्ष का जीवन व्यतीत करने के लिए तैयार है ?” “हम सब अपने महाराणा के एक इशारे पर अपना तन-मन, सब कुछ न्योछावर कर देंगे !” चारों तरफ से सुनाई दिया।“द्रढ़ इरादे वाले लोगों और राष्ट्रों को कोई बड़ी से बड़ी शक्ति भी पराधीन नहीं रख सकती ।” राजगुरु ने कहा — “इस पवित्र ललकार को सुनने के लिए मेरे कान जाने कब से व्याकुल हो रहे थे, प्रताप!””शत्रुओं द्वारा मात्रभूमि के किये गए अपमान का बदला गिन-गिनकर तलवार की नोक से लिए जायेगा । चप्पा चप्पा भूमि की रक्षा के लिए यदि खून की नदियाँ भी बहानी पड़ी, तो मेरे मुख से कभी उफ़ तक न निकलेगा । आप लोगों ने मुझे जो स्नेह और विश्वास प्रदान किया है, प्रताप दम में दम रहते उस पर रत्ती-भर भी आंच न आने देगा ! जय स्वदेश! जय मात्रभूमि ! जय मेवाड़ ! ” उसके बाद सभी उपस्थित सरदारों, सामंतों और दरबारियों ने मात्रभूमि की स्वतंत्रता और रक्षा के प्रति निष्ठावान रहने की शपथ ली । अपने नए महाराणा प्रताप का अभिवादन किया । प्रताप को राणा बनते देख पूरा राजपुताना दो खेमों में बंट गया था, एक ओर वो थे जिन्होंने अपना स्वाभिमान अकबर को बेच दिया था और दुसरे वो थे जिनके पास स्वाभिमान तो था पर सागर जैसे सेना और ताकतवर मुग़ल सामराज्य से लोहा लेने की ताकत न थी इसलिए वैसे राजाओं ने प्रताप के राणा बनने में ख़ुशी जाहिर की ।

शक्तिसिंह प्रकरण | Maharana Pratap history in hindi

Maharana Pratap history in hindi: प्रताप के महाराणा बनते ही कई राजपूत वीरों का खून उबलने लगा था और वो आकर महाराणा प्रताप से मिलने लगे थे. वो सभी शत्रु से दो दो हाथ करने के लिए मचलने लगे थे जिसने उन्हें परतंत्रता ककी जंजीर में बंधा था, परन्तु उस समय उनका शत्रु दिल्ली का बादशाह जल्लालुद्दीन अकबर था जिसके पास सागर सा विशाल सेना थी और जिसने चितौडगढ़ में लगातार 6 महीने तक राजपूतों से युद्ध कर चितौडगढ़ जीता था. कई राजपूत वीर अपने भाला, तलवार और तीर कमान लेकर जंगल की ओर युद्ध का अभ्यास करने चल पड़े. वो अपने हथियार को धार और युद्ध अभ्यास करने को उतावले थे, उन्होंने जंगल को अपना युद्धाभ्यास का क्षेत्र बना लिया था. इन्ही दिनों राणा प्रताप भी युद्धाभ्यास के लिए जंगल जाया करते थे. एक दिन वो अपने छोटे भाई शक्ति सिंह के साथ वराहों का शिकार करने के लिए जंगल गए, जैसे ही उन्हें वराह दिखा दोनों भाइयों ने उस वराह में एक साथ अपना भाला फेंक दिया, परन्तु एक भाला वराह को लगा और वराह वहीँ मर गया. दोनों भाई वराह का पीछा करते हुए वहां पहुंचे. वराह को मृत देख शक्ति सिंह ने कहा की देखा भैया मेरा निशाना कितना अचूक है मेरे एक वार से यह वराह धराशयी हो गया , राणा प्रताप को यह बात अच्छी नहीं लगी , उन्हें अच्छी तरह से ज्ञात था की यह भाला उनका है, वे बोले नहीं शक्ति ये तुम्हारा भाला नहीं ये मेरा भाला है. इस पर शक्ति सिंह बौखला गया, और फिर कहा “आपका कहने का तो यही अर्थ हुआ न की मैं झूठ बोल रहा हूँ, मैं आपको झूठा नजर आ रहा हूँ, मैं किसी भी तरह से श्रेष्टता में आपसे कम न हूँ, मैं एक राजपूत हूँ और एक राजपूत कभी भी झूठ सहन नहीं कर सकता है. आप मेवाड़ के राजा अवश्य होंगे परन्तु मैं झूठ नहीं सहन कर सकता हूँ. इस पर राणा प्रताप ने कहा की “मेरा ये अर्थ नहीं था शक्ति, मैं तो बस तुम्हे सत्य का बोध करा रहा था,” और कई तरह से समझाने की कोशीश करते हुए मुस्कुराने की कोशिश किये. शक्ति सिंह ने कहा की “सत्य असत्य का बोध आप न कराये मुझे मुझे अच्छी तरह से पता है सत्य क्या है, ये शिकार मेरा है और मैं इसे लेकर रहूँगा, मैं जगमाल नहीं हूँ जो आसानी से अपना हक़ छोड़ दूँ” इतना कहकर शक्ति सिंह ने अपने अनुचरों से कहा की आनुचारों उठा इस शिकार को, इसपर राणा प्रताप गरजे शक्ति सिंह तुम अपनी हद पार कर रहे हो, तुमने मेरा ही नहीं मेवाड़ के महाराणा का भी अपमान किया है, नादे भाई के रूप में मैं तुम्हे क्षमा कर भी दूं, पर मेवाड़ के महाराणा का अपमान नहीं सहा जायेगा. शक्ति सिंह ने कहा की मैं एक राजपूत हूँ, और आपको मेरा ताकत का अंदाजा नहीं है इतना कहकर उसने एक भाला उठाया और पूरी शक्ति से एक शिला में फ़ेंक दिया, भाला शिला से टकराते ही क्षण भर में चूर चूर हो गया,और फिर कहा तो फिर ठीक है, एक राजपूत योद्धा के भांति निकालिए अपना तलवार और सामना कीजिये इस राजपूत का, राणा प्रताप ने फिर समझाने की कोशिश की कि लगता है तुम अपने ताकत की घमंड में अपनी मर्यादा भूल गया हो, शक्ति सिंह अपने आप को सम्भालों. शक्ति सिंह कायर नहीं है, और आप अपनी तलवार निकालो और सामना करो जो जीवित बचेगा वही विजयी होगा, सारे अनुचर उन दोनों भाइयों को देख रहे थे और थर थर काँप रहे थे, यदि आज प्रताप चुप रह जाते तो ये मेवाड़ के महाराणा की शान के विरुद्ध होता, और सारी मेवाड़ में प्रताप की किरकिरी हो जाती, इस ललकार को नजर अंदाज नहीं किया जा सकता था, इसलिए राणा प्रताप ने अपनी तलवार निकाल लिया, इतना देखते ही उनके सैनिक बीच में आ गए और होने वाले युद्ध को रोकना चाहा पर शक्ति सिंह उस समय इस तरह पागल हो चूका था की वो तलवार लिए अपने सैनिकों की तरफ ही लपक पड़ा, सभी सैनिक अपनी जान बचा कर वहां से भाग गए, फिर उसने राणा प्रताप पर पहला वार किया, और राणा प्रताप ने भी अपना बचाव किया, दोनों योद्धा तलवार बाजी में निपूर्ण थे, इसलिए थोड़ी ही देर में उन दोनों के बीच होने वाली लड़ाई युद्ध में बदल गयी, तलवार की झंकार से सारा माहोल थर्रा उठा था, और कोई भी उनके पास जाने की हिम्मत नहीं कर रहा था, दोनों भाई एक दुसरे के खून के प्यासे लगने लगे थे. युद्ध की आवाज सुनकर उनके गुरु राघवेन्द्र वहां पहुँच गए, और वो उन दोनों को इस तरह युद्ध करता नहीं देख पाए, उन्होंने कई बार उन दोनों से युद्ध न करने की प्रार्थना की पर किसी ने भी उनकी बात को न सुना, फिर युद्ध को रोकने की प्रार्थना करते हुए वे उन दोनों के बिलकुल समीप आ पहुंचे, इतने में ही शक्ति सिंह ने प्रताप पर एक ऐसा वार किया की प्रताप तो किसी तरह उस वार से बच गए परन्तु वो वार सीधा गुरुवर राघवेन्द्र को लगा, गुरु वहीँ पर अपने प्राण त्याग दिए, दोनों गुरुवर को इस प्रकार गिरता दिख आहात हो गये, उन्होंने अपने क्रोध को भूल कर गुरुवर की तरफ देखे, गुरु की मृत शरीर को देख प्रताप जोर जोर से वहीँ रोने लगे और अपनी गलती की क्षमा मांगने लगे, उन्होंने अपने गुरु की सिर को अपने जांघों में रखा और अपनी पश्चताप करने लगे, शक्ति सिंह वही खड़ा सब देख रहा था, उसने जैसे ही गुरु की तरफ आगे बढ़ा राणा प्रताप ने उसे रोक लिया और क्रोद्ध भरे नज़रों से शक्ति सिंह को देखा. राणा प्रताप उस समय बहुत ज्यादा क्रोद्धित हो चुके थे, इस लिये उन्होंने शक्ति सिंह को उसी समय राज्य से निर्वासन का आदेश दे दिया, शक्ति सिंह अपने निर्वासन के आदेश को सहन नही कर सका और उसी समय मेवाड़ को छोड़ दिया. इधर राणा प्रताप ने पुरे सम्मान के साथ अपने गुरुवर का अंतिम संस्कार किया.

उदयपुर का त्याग और कुमलमेर को राजधानी बनाना | Maharana Pratap history in hindi

Maharana Pratap history in hindi: शक्तिसिंह के निर्वासन के बाद राणा प्रताप ने सभी सामंतों और राजपूत योद्धाओं की एक सभा बुलाई और सबको एक साथ सम्भोधित करते हुए कहा की “मेवाड़ के समस्त सामंत, बहादुर, और नागरिकों आज का दिन हम सबके लिए आत्ममंथन का दिन है, संकल्प का दिन है, हम सभी जानते है की साम्राज्यवादी ताकते हम सभी को नष्ट कर हमारी संस्कृति को छिन-भिन्न कर देना चाहती है, हमारा बस अपराध इतना है की हमने किसी की अधीनता स्वीकार नहीं की है, आज पूरा भारतवर्ष विदेश से आये हुए मुस्लिम साम्राज्य के आगे घुटने टेक दिए है, हमारे राजपूताने के कई राजाओं ने भी उनकी अधीनता स्वीकार कर ली है, पर आजतक हमारे किसी भी पूर्वजों ने किसी के सामने अपना सर नहीं झुकाया है, हमारे हर पूर्वजों ने अपना सर झुकाने के स्थान में अपना सर कटाने पर विश्वास किया है. मुग़ल हमारी ताकत और राजपूतों की आन बाण और शान से भली भांति परिचित है, परन्तु राजपूतों के ख़ून में जो सबसे बड़ी कमजोरी है वो है एक दुसरे से जलना, उन्हें निचा दिखाना, और हर संभव एक दुसरे को नष्ट करना. विदेशी शक्ति सदैव से इन कमजोरियों का लाभ उठा कर राजपूतों के पीठ पर वार किया है. अपनों के साथ विश्वासघात ही समाराज्य्वादियों की जड़ों को हमारी धरती में गहराइ तक ले गयी है. इन विदेशियों से हाथ मिलाने की इच्छा इसलिए नहीं होती है क्योंकि जब जब राजपूतों ने इनसे हाथ मिलाया है हमारे घरों की स्त्रियों की मान, मर्यादा खतरे में पड़ी है, इनके सरदार जब चाहे हमारे घरों से किसी सामान की भांति हमारी घरों के स्त्रियों को ले जाते है, और आप इस बात से बिलकुल भी अनजान नहीं है की आज जो दिल्ली का राजगद्दी में बैठा शाषण कर रहा है, वो किस तरह से वहां के हिन्दू स्त्रियों को आगरा के बाजार में खुले आम बेच रहा है. इतिहस साक्षी है की, राजपूत स्त्रियाँ इनकी हवास का शिकार बनने से बचने के लिए जलती चिताओं में अपने कुंदन से सुन्दर तनो को जीवित जलाकर राख किया है, महारानी पदिमनी जैसी असंख्य राजपूत ललनाये अपनी सोने से शारीर को आग्नि में भस्म कर चुकी है, बाप्पा रावल के वंशज भीम सिंह से लेकर महाराणा सांगा तक असंख्य वीर राजपूतों ने हमारी इस धरती को विदेशियों से बचाने के लिए अपनी प्राणों की बलि दे दी है. हमें लड़ाकू कौम कहा जाता है, और हम इस बात को स्वीकार करते है की हम लड़ाकू है, और हमें इस बात पर गर्व है की हम एक लड़ाकू कौम है पर लड़ाकू होने का ये अर्थ नहीं है की हम आक्रान्ता हो जाये, अपने ही भाइयों को नीचा दिखाने और उनका हक़ छिनने से हममें और उन मुगलों में क्या अंतर रह जायेगा. आप लोगो ने मुझे मेवाड़ का राणा बनाकर मुझपर बहुत भरी दायित्व दाल दिया है, परन्तु चित्तौड़ अभी भी उन मुगलों के अधीन है, मेरा सबसे पहला कर्तव्य यही है की चितौड़ को मुगलों से छुड़ा कर राजपूती शान को फिर से स्थापित करूँ और मुगलों को ये सन्देश पहुंचा दू की राजपूतों से टकरा कर वो भी चैन से नहीं सो सकते है राजपूत मरने से नहीं डरते वो तो युद्ध में मर कर अमर हो जाया करते है. परन्तु एक बात ध्यान रहे मैं अकेला कुछ भी नहीं हूँ, यदि आप लोगो की फौलादी ताकत मेरे साथ है तो मैं फौलाद हूँ, आज मेरे साथ साथ आपलोग भी शपथ लीजिये की जब तक हम चितौड़ को मुक्त नहीं करा लेंगे तब तक हम सब सोने चांदी के बर्तनों में भोजन नहीं करेंगे, जीवन को भोगों में नष्ट नहीं होने देंगे, हम आपसी वैर भाव, और अन्य सभी संकिर्ताओं को अपने से दूर रखेंगे, और इस तरह महाराणा प्रताप के साथ सभी योद्धाओं, सरदारों और नागरिकों ने सपथ ली. शपथ के बाद ही मेवाड़ क्षेत्र में नई हलचल आरम्भ हो गयी, राजपूतों ने सिर और मुछ के बालों को कटवाने बंद कर दिए. सादे जीवन का प्रण लेकर अपने महाराणा को हर संभव सहयोग देने लगे. इसके साथ ही उदयपुर जैसे सुन्दर नगरी को त्याग कर, कुमलमेर की दुर्गम पहाड़ियों के बीच अपनी राजधानी बनाने का निर्णय महाराणा प्रताप और उनके विवेकशील सरदारों ने लिया. राणा प्रताप जानते थे की उदयपुर समतल स्थान में बसी नगरी है, और यहाँ भारी मुग़ल सेना कभी भी उनपर आक्रमण कर उनपर अपना अधिकार जमा सकती है, इसके साथ ही राजपूतों के संख्या कम होने के कारण पहाड़ियों के बीच उन्हें लड़ना सदैव से अनुकूल रहा है. देखते ही देखते उदयपुर वीरान हो गया, और महाराणा के इशारे में उदयपुर निवासी कुमलमेर में जाकर बसने लगे. राणा प्रताप ने उदयपुर छोड़ने का आदेश इतनी शक्ति से दे रखा था की जो भी उदयपुर की सीमा में प्रवेश करता उसे मृत्यु दंड दिया जाता. कुछ ही समय में कुमलमेर आबाद और उदयपुर आजाद हो गया. कुमलमेर में आराम का जीवन नहीं था, कठोर जीवन देकर महाराणा प्रताप अपने नागरिकों को ये एहसास दिलवाना चाहते थे की उनका जन्म भोग-विलास के लिए नहीं बल्कि अपनी धरती को मुगलों से आजाद करवाने के लिए हुआ है. महाराणा प्रताप ने एक विशाल किला कुमलमेर में बनवाया, और सुरक्षा का पूरा इंतजाम किया. राजपूत युवकों को युद्ध करने का अभ्यास करवाया जाता था, अपनी मातृभूमि में मर मिटने के लिए तैयार रहने का मनोबल दिया जाता था. स्त्रियाँ भी अपने भाइयों, बेटों और पत्तियों को उनकी तैयारी में पूरा सहयोग करती. मेवाड़ की समस्त प्रजा अपनी आय में से कटौती कर सुरक्षा व्यवस्था के लिए धन जूटा कर देती, जन जन में महाराणा प्रताप ने ये मन्त्र फूंक दिया था की, ना कोई राजा है न ही कोई प्रजा है, जब तक हम अपनी खोई हुई जमीन वापस नहीं ले लेते तब तक हम चैन से नहीं बैठ सकते है. राणा प्रताप में मुगलों से अपनी मातृभूमि लेने का लक्ष्य था वही उनके दोनों भाइयों ने उन्हें बहुत निराश किया. उनका छोटा भाई जगमाल जिसे हटा कर प्रताप को राणा बनाया गया कभी चैन से नहीं बैठा, राणा प्रताप ने बहुत कोशिश की कि जगमाल को पूरी प्रतिष्ठा दी जाय पर जगमाल उनसे हमेशा असंतुष्ट और नाराज ही रहता वो अपने आप को अपमानित समझता. वो अधिक दिन तक मेवाड़ में नहीं रह सका और उसने मेवाड़ त्याग कर अपने परिवार समेत जहाजपुर चला गया. जहाजपुर आज्मेर के सुबेदारी की अधीन था. अजमेर के सूबेदार ने उसकी रहने की व्यवस्था कर दी. कुछ दिन बाद जगमाल अकबर से मिला. अकबर विस्तारवादी था वह हमेशा से राजपूतों को अपने साथ मिला कर उन्हें अधीन करना चाहता था. वह जनता था की पुरे भारतवर्ष में राजपूत कौम ही सबसे बहादुर और लड़ाकू है, इसलिए ये कौम जिसके पक्ष में रहेगी वही भारत में राज कर पायेगा. उसे पता लगा की राणा प्रताप का भाई उसकी शरण में आया है, जिसे राज गद्दी से हटाकर प्रताप मेवाड़ का राजा बना है. तो उसे हार्दिक प्रसन्नता हुई. जगमाल के पिता उदय सिंह से चितौड़ का किला छींनते समय वो राजपूतों के बहुबल से परिचित हो चूका था, उसके विशाल मुग़ल सेना ने मुट्ठी भर राजपूतों से चितौड़ का किला जितने में छ: महीने का वक़्त लगा था. अब राणा प्रताप का छोटा भाई जगमाल उसके सामने खड़ा था, वह प्रताप से घृणा करता था, ऐसे व्यक्ति को शरण देकर अकबर राजपूतों की एकता की कमर तोड़ देना चाहता था. इसलिए उसने जगमाल का स्वागत किया और उपहार स्वरूप जहाजपुर का परगना दे दिया. जगमाल ने अकबर को वचन दिया की वह सदैव अकबर की अधीनता में रहेगा और यथा संभव सहयोग देगा. उसी समय एक घटना और हो गयी सिरोही राज्य के उत्तराधिकार को लेकर देवड़ा सुरतान और देवड़ा बीजा में टन गयी, दोनो को ही अपनी शक्ति में भरोसा नहीं था इसलिए वो सम्राट अकबर के मित्र राय सिंह के पास पहुंचे. राय सिंह ने दोनो की बात सुनी और फिर देवड़ा सूरतान का पक्ष ले लिया, उसने सुरतन से शर्त रखी की वह सिरोही का आधा राज्य अगर अकबर को दे दे , तो वह उसकी सहायता करेगा. सुरतान तैयार हो गया. उसने आधा सिरोही राज्य अकबर को दे दिया. और अकबर ने तुरंत ही वह सिरोही राज्य जगमाल को दे दिया. राव सुरतान को ये बात बहुत बुरी लगी, उसने जगमाल को चुनौती दे डाली, परन्तु देवड़ा बीजा उसके उसके साथ हो गया और राव सुरतान का शक्ति संतुलन बिगड़ गया.उसे सिरोही छोड़ना पड़ा.वह भाग कर आबू चला गया. बाद में देवड़ा बीजा ने जगमाल का साथ छोड़ दिया अब जगमाल अकेला पड़ गया. राव सुरतान ने मौका देख कर जगमाल पर आक्रमण कर दिया. इस युद्ध में जगमाल मारा गया. रायसिंह की भी इस युद्ध में मृत्यु हो गयी. अकबर की कूटनिति ये थी की वह राजपूतों को अपने अधीन करके उनके बल पर पुरे भारतवर्ष पर शाषण करना चाहता था, अपनी इस योजना को पूरा करने के लिए वह राजपूतों पर सदैव दबाव बनाये रहता था, उन्हें आपस में लड़ा कर नष्ट करने से भी वह कभी नहीं चुकता था, वह राजपूतों की कमजोरियों को अच्छी तरह से समझ गया था, इसी कारण से उन्हें एक एक कर के झुकाने और बर्बाद करने में सफल रहा. सिरोही का आधा राज्य देवड़ा सुरतान से लेकर जगमाल को देने के बाद अकबर ने अपना पल्ला झाड़ लिया और राजपूतों के बीच लड़ने के लिए हड्डी फेंक दी, सिरोही का राज्य उनकी आपसी फूट को हवा देने का माध्यम बन गया. राजपूतों के आपस में अनेक युद्ध हुए और जगमाल, रायसिंह और व कोलिसिंह आदि अनेक राजपूत योद्धा अकबर के मकसद को पूरा करने में काम आये.

शक्ति सिंह का अकबर के शरण में जाना | Maharana Pratap history in hindi

Maharana Pratap history in hindi: शक्तिसिंह महाराणा प्रताप के छोटे भाई थे, उन्हें अपनी बहादुरी पर बहुत गर्व था. वे अपने आप को किसी भी तरह प्रताप से कम मनाने को तैयार न थे, उनके अहं ने उन्हें प्रताप से टकराने को विवश किया. अपने अहम् की तुष्टि के लिए उन्हें कोई और आधार मिलता, इससे पहले ही उन्हें राज्य निर्वासन का आदेश मिल गया. अपमान और प्रतिशोध की ज्वाला में जलते शक्तिसिंह उदयपुर से चले तो गए, परन्तु अपने बड़े भाई और मेवाड़ के महाराणा प्रताप सिंह से बदला लिए बिना उन्हें चैन नहीं था. कई बार उनके मन में आया की एक बार वो प्रताप के सामने खड़े हो और उन्हें द्वंद युद्ध के लिए ललकारे, फिर या तो वे प्रताप की जान ले ले या फिर उनके हाथों अपनी जान गँवा दे. शक्ति सिंह के लिए अपनी क्षत्रिये धर्म की यही परिभाषा थी. उनके मन में ये कभी नहीं आया की उनके पिता महाराणा उदयसिंह को मुगलों से मुकाबला करने में न जाने कितने कठिनाइयों का सामना करना पड़ा था, कितने राजपूत योद्धाओं को बिना किसी अपराध के अपने प्राण गंवाने पड़े थे, कितनी राजपूत ललनाओं को जौहर कर, युवास्था में अपने प्राण गंवाने पड़े थे, अब ये सोचना राणा प्रताप जैसे राजपूतों का काम था, और राणा प्रताप जैसे महापुरषों को नष्ट करने का सोच रखना शक्ति सिंह जैसे संकीर्ण सोच वाले राजपूतों का काम था. इस देश का यही दुर्भाग्य रहा है की राणा प्रताप जैसे व्यापक सोच वाले राजपूत राजा कम पैदा हुए है और शक्ति सिंह जैसे दम्भी और आत्मकेंद्रित राजपूत अधिक पैदा हुए. उन दिनों समूचा देश राजपूतो के छोटे छोटे राज्यों में बंटा था. ऐसे दंभी राजपूतो के राज्यों में जो अपनी मिथ्या हठ और झूठे स्वाभिमान के लिए एक-दुसरे से प्रतिशोध लेने, एक-दुसरे को बर्बाद करने के अतिरिक्त कुछ और नहीं सोच पाते थे. वो भूल जाते थे की प्रजा पर शासन करने का दयित्व्य उन्हें मिला था, उनका भी कोई स्वाभिमान है, वे भी किसी व्यक्तित्व, किसी पहचान के हक़दार है, उनकी भी कुछ महत्वाकांक्षाये है, अथवा सामन्य इच्छाएं हो सकती है. उनके लिए प्रजा केवल प्रजा थी और सबसे उपर था उनका दंभ. जिसकी पूर्ति करते समय वे प्रजा की हर इच्छा की बलि देने में भी नहीं चुकते थे. राजपूतों की इसी हठधर्मी और संकीर्णता ने उन्हें एक-दुसरे से टकराने और टकराते रहने पैर विवश किया. बात यही समाप्त हो जाती तब भी शायद भारतवर्ष इतना ताबाह ना होता. बात तो इससे भी आगे जा पहुंची थी. प्रतिशोध की ज्वाला में राजपूत इतने अंधे हो जाते थे की वे अपनी मातृभूमि, अपनी जन्मभूमि, अपना परिवार, अपने रिश्ते-नाते यहां तक की अपना मित्र-धर्म, अपना जातीय दायित्व, अपना सामाजिक दायित्व तक भूल जाते थे. बुध्दिहीन हिंसक पशु की तरह चोट करने पर आमादा हो जाते थे. जब वे अपना बल तोलने पर उससे बदला लेने के लिए कम पते अथवा अपनी कोई विवशता देखते थे तो रुकते नहीं थे, अपितु विदेशी सम्रज्वादी ताकतों, लुटेरों और हमलावरों से हाथ मिला लेते थे. ये हमलावर प्रतिशोध की ज्वाला में जलते राजपूत राजा की मदद करने की उद्देश्य से नहीं आते थे, उसके आड़ में अपना स्वार्थ पूरा करने आते थे. ऐसे नेक हमलावरों और लुटेरों को भारत के अनेक राजाओ ने अपने विरोधी राजाओ का दम्भ चूर करने के लिए विदेशी धरती से भारतवर्ष में बुलाया और उनके लिए भारत वर्ष को गुलाम बनाने का रास्ता खोल दिया. भारत के धरती पर अनेक मुस्लिम ताकतों का जमाव यूँ ही नहीं हो गया था, शक्ति सिंह की नस्ल के घमंडी और महत्वकांक्षी चरित्र इसके लिए जिम्मेदार थे. अकबर मुग़ल सल्तनत का तीसरा बादशाह था, उसके दादा ने बाबर ने भारत में प्रवेश किया था और राजपूत राजाओं की कमजोरियों का फायदा उठाकर उसने अपने देश का एक हिस्सा में अपना राज्य स्थापित कर लिया. बाबर के पुत्र हुमायु ने राज्य सीमओं का विस्तार किया, अकबर ने अपने दादा और पिता के लड़ाकू जीवन तथा साम्राज्य स्थापित करने व उसका विस्तार करने की नीतियों को बारीकी से समझा और उसने वही किया, जो कमजोरियां भरे इस देश में मुग़ल साम्राज्य के विस्तार के लिए सबसे अनुकूल था. इतना ही नहीं अकबर अपने पूर्वजों से भी कहीं आगे निकल गया, उसने हिन्दू व इस्लाम धर्म में समन्वय के भरी प्रयास भी किये, परन्तु दोनों प्रकार की धार्मिक कट्टरता के कारण उसे अपने उद्देश्यों मे सफलता नहीं मिली. अकबर में मानवता और राजनितिक कूटनीति दोनों का अच्छा समन्वय था. वह एक अच्छा इंसान बनना चाहता था, तथा हिन्दू व मुसलमान दोनो पक्षों को भी अच्छे इंसान बनाना चाहता था, परन्तु इस दिशा में काम करते समय वह बहुत सावधानी से काम करता था, वह कभी इतना नहीं बहका की दोनों पाटों में पिस जाए, उसने पुरे होश हवास में प्रयास किये, परन्तु जब उसने देखा की उसके साम्राज्य को कोइ खतरा हो सकता है तो उसने तुरंत पैंतरा बदल दिया, और वह सफल साम्राज्यवाड़ी शाषक साबित हुआ. साम दाम दंड भेद सभी राजनितिक दांव पेंच का इस्तेमाल करते हुए अकबर भारत का प्रसिद्ध शासक के रूप में उभरा, यही कारण है की अकबर का मूल्यांकन करने में काफी सारी कठिनाइयाँ आती है. अकबर में शक्ति से नहीं, तर्क और तरकीब से जीतने की क्षमता थी. शक्ति सिंह अपनी प्रतिशोध की ज्वाला को शांत करने के लिए अकबर के पास जा पहुंचा, अकबर जनता था, की शक्ति सिंह का इस्तेमाल कैसे और कहाँ किया जा सकता है, उसने वही किया अकबर ने शक्ति सिंह को पूरा सम्मान दिया, उसके अआहत अहं को शांत करने के लिए राणा प्रताप से टकराने का रास्ता भी सुझाया, परन्तु शक्ति सिंह पर इतना कभी भरोसा कभी नहीं किया की युद्ध की कमान उसके हाथों में सौंप देता, शक्ति सिंह ने अकबर के बिना पुछे ही राणा प्रताप की सारी कमजोरियां और सीमाये बता दी, और जिद्द की कि राना प्रताप को निचा दिखानी का अवसर दिया जाए. इसपर अकबर ने शक्तिसिंह को सुझाया की प्रताप को नीचा दिखाने के लिए बड़े स्तर में सैनिकों के आक्रमण के स्थान पर क्यों ना राणा प्रताप को धोखे से पकड़ लिया जाए, खून खराबा कम हो तो ज्यादा अच्छा हो, इसपर शक्ति सिंह ने इसे राजपूती धर्म के विरुद्ध समझा और इसका विरोध किया. अकबर को समझते देर ना लगी की शक्ति सिंह शक्तिशाली तो है पर विवेक शुन्य है., इसलिए इसका इस्तेमाल राणा प्रताप के भेद और कमजोरियों को जानने के लिए ही किया जा सकता है, इससे ज्यादा छुट देने पर ये पकड़ से बाहर हो जायेगा.

मानसिंह से सलाह | Maharana Pratap history in hindi

Maharana Pratap history in hindi: अम्बर के राजा भगवानदास ने अपनी बहन जोधाबाई का विवाह अकबर के साथ कर दिया था, भगवानदास का पुत्र मानसिंह अकबर का परम विश्वसनीय सेनापति था. अकबर ने मानसिंह को अकेले में बुलाया और मेवाड़ में आक्रमण करने के बारे में बातचीत की. अकबर ने शब्दों को अच्छी तरह से चबाते हुए कहा की – :मानसिंह तुम जानते हो की मैं व्यर्थ में खूनखराबा नहीं चाहता और वह खून खराबा राजपूतों के विरुद्ध हो तो मुझे दुःख होता है, परंतु मेवाड़ के राणा प्रताप सिंह का भाई शक्तिसिंह दिल्ली आया हुआ है, उसे प्रताप ने निर्वासित कर दिया है, उसने बताया की प्रताप चित्तोडगढ वापस लेने के लिए मुगलों के विरुद्ध युद्ध की तैयारी भी कर रहा है”. इस पर मानसिंह ने बड़े ही आदर से कहा की ये सब राजपूतों के आपसी झगडे है, शक्ति सिंह प्रताप का भाई है उससे कुछ गड़बड़ हुई होगी और प्रताप ने उसे निर्वासित कर दिया, पर इससे ये साबित नहीं होता है की शक्ति सिंह एक गंभीर व्यक्ति नहीं है, फिर हम उसे गंभीरता से क्यों ले. इसपर अकबर ने कहा की तुम ठीक कहते हो मानसिंह परन्तु प्रताप के बारे में मैंने अन्य राजपूतों और अपने गुप्तचरों से भी सुना है वह कई लोगो में जातीय स्वभिमानता को जाग्रत कर हमसे टकराने के लिए उन्हें तैयार कर रहा है. मानसिंह ने कहा की हमें तनिक भी चिंता नहीं करनी चाहिए, प्रताप की मुट्ठीभर राजपूत सेना हमारी सागर सी विशाल सेना का कुछ नहीं बिगड़ सकती है. शत्रु को कभी कमजोर समझने की भूल ना करना मानसिंह, और जब शत्रु राणा प्रताप जैसा योद्धा हो तब तो कदापि नहीं. मानसिंह ने कहा की राणा प्रताप के लिए आपके मन में इतनी कद्र? इस पर अकबर ने कहा की बहादुरों की कद्र करना हमारी फिदरत है. बेशक हम राणा प्रताप की बहादुरी की कद्र करते है. इतना ही नहीं हमारे मन में तो सारे राजपूत कौम के लिए इज्जत है. हम नहीं चाहते है की प्रताप हंसे टकराए और हमें राजपूतों का बेवजह खून बहाना पड़े. इसलिए कुछ युक्ति सोचो और प्रताप को समझा बुझा कर मुग़ल सल्तनत के अधीन कर लो, इसके बाद तो सभी राजपूत खुदबखुद मुग़ल सल्तनत के अधीन हो जायेंगे, बस हमें और कुछ नहीं चाहिए. सारे राजपूतों को झुकाकर मुग़ल सल्तनत के अधीन करने वाली बात सुन कर मानसिंह के मन इन चुभन सी होने लगी उसने अकबर कहा की आप चिंता ना करे मैं शोलापुर के विद्रोह का दमन करने जा रहा हूँ. वहां से लौटते समय मैं प्रताप सिंह से अवश्य मिलूँगा और उन्हें समझा बुझा कर माय=उगल सल्तनत से संधि करने के लिए अवश्य मना लूँगा. इतना सुनकर अकबर ने गहरी सांस ली और कहा की देखो मानसिंह मैं राजपूत कौम का परम हितैषी हूँ, मैं बेवजह राजपूतों का खून नहीं बहाना चाहता हूँ, राजपूत कौम की सुरक्षा मुगल सल्तनत से मिलकर ही रहने में है परन्तु पता नहीं क्यों प्रताप जैसे कुछ राजपूतों को ये बात समझ में ही नहीं आती है. इसपर मान सिंह ने कहा की हाँ जह्पनाह मैं प्रताप से मिलकर उन्हें अवश्य समझाऊंगा और मुझे पूरा विश्वास है की मेरी पहल कका नतीजा अवश्य ही निकलेगा. इतना कहकर मानसिंह वहां से चला गया. शोलापुर का विद्रोह दबाने में उसे भारी सफलता मिली. उसके आत्मविश्वास का स्तर और बढ़ गया. शोलापुर से लौटते समय वे मेवाड़ के निकट से गुजर रहे थे , उनके दिल में एक अरमान उठा अब वे प्रताप सिंह से मिलेंगे और दिल्लीपति से सुलह करा उनके सल्तनत को अकबर के अधीन लायेंगे. उन्होंने अपना दूत को राणा प्रताप के पास भेजा. दूत ने राणा प्रताप से भेंट की और अम्बर नरेश का सन्देश उन्हें दे दिया. राणा प्रताप ने दूत को कहा मेवाड़ के नरेश उनके स्वागत के लिए पहुँच रहे हैं..राणा प्रताप ने मानसिंह को सम्मान पूर्वक कुमलमेर ले आये. राणा प्रताप उन दिनों पत्तों से बनी पत्तली पर भोजन करते थे. और उनकी प्रेरणा से सभी राजपूत योद्धा पत्तलों पर ही भोजन करते थे. अपने राज्य को मुगलों के अधिपत्य से मुक्त कराने का संकल्प लेकर वे तपस्वी सा जीवन जी रहे थे पर इसके बावजूद उन्होंने मानसिंह के लिए सोने चांदी की बर्तोनो की व्यवस्था की. सोने की थाली में तरह तरह की व्यंजनों को मानसिंह के पास परोसा गया. राणा प्रताप के बेटे अमर सिंह ने भोजन की व्यवस्था स्वयं कराई थी. वे सम्मान पूर्वक राजा मानसिंह से बातें कर रहे थे और भोजन की व्यवस्था के बारे में बार बार पूछ रहे थे. भोजन परोसे जाने के बाद अमर सिंह ने निवेदन किया की महाराज आप भोजन प्रारंभ कीजिये. मान सिंह ने द्वार की ओर देखा और बोले-“तुम्हारे पिता अभी तक नहीं पहुंचे है..क्या वे हमारे साथ भोजन नहीं करेंगे.. अमर सिंह ने अपनी नजरें झुका ली और बोला-“आप भोजन आरंभ कीजिये राजा साहब, पिताजी ने सन्देश भिजवाया है की राजा साहब को आदरपूर्वक भोजन कराया जाए. वो किसी कारन से यहाँ आने में असमर्थ है. राजा मानसिंह ने चौंक कर कहा की आखिर ऐसा कौन सा कारण उपस्थित हो गया है की तुम्हारे पिता हमारे साथ भोजन के लिए नहीं पहुँच पा रहे है….मुझे इसका जवाब चाहिए नहीं तो मैं भोजन नहीं करूँगा. आप बुरा ना माने महाराज आप हमारे अतिथि है आप भोजन आरंभ कीजिये- अमर सिंह ने हाथ जोड़कर विनर्मता पूर्वक कहा. पिताजी के सर में दर्द हो गया है वो भोजन के बाद आपसे अवश्य मिलेंगे. इसपर मानसिंह एकाएक चीखे और कहा अपने पिता से जाकर कह दो की मैं उनके सर में दर्द का कारण जान चूका हूँ अगर वो अभी यहाँ आकार मेरे साथ भोजन में सम्मिलित नहीं हुए तो उनके सर में दर्द का उपचार मैं अच्छी तरह से जानता हूँ और उनका समुचित उपचार अवश्य करूँगा.अमर सिंह ने फिर से विनती की आप भोजन कीजिये महाराज..इसपर मानसिंह क्रोधित हो गए और कहा की आज प्रताप सिंह ने मेरे साथ जैसा व्यव्हार किया है ऐसा व्यवहार क्या किसी राजपूत को शोभा देता है. ठीक उसी समय राणा प्रताप अपने प्रमुख सरदार के साथ राणा प्रताप वहां आ पहुंचे. राजपूतों को क्या शोभा देता है, क्या नहीं इसका फैसला आप कब से करने लगे राजा मानसिंह? प्रताप सिंह आप मेरा अपमान कर रहे है. नहीं राजा मान सिंह राणा प्रताप किसी का अपमान नहीं करते है.. परन्तु आप जैसे राजपूत के साथ भोजन करना मैं अपने प्रतिष्ठा के विरुद्ध समझता हूँ. राणा प्रताप ये मत भूलों की तूम किसके साथ बात कर रहे हो.जनता हूँ राजा साहब मैं अम्बर के महाराजा मानसिंह के साथ बात कर रहा हूँ. ये वही महाराजा मानसिंह है जिनके पिता ने अपनी बहन मुग़ल सम्राट अकबर के साथ ब्याह दी, ताकि मुग़ल के को से बचा सके और मुगलों के रिश्तेदार बनकर युद्ध के खतरे से मुक्त हो जाये..मैं ये भी जानता हूँ की राजा मानसिंह अकबर के चहेते मुग़ल सेनापति है…उनके अधीन कई लाख सैनिकों वाला विशाल लश्कर है, वे चाहें तो पलक झपकते ही मेवाड़ की ईट से ईट बजा सकते है. मुग़ल सेना को लेकर राजपूतों की मान मर्यादा को रौंद सकते है. यह जानते हुए भी तुम्हारी इतनी हिम्मत कैसे हुई की तुमने मुझे घर बुला कर मेरा इतना अपमान किया. जिसे आप अपना अपमान समझ रहे है राजा मान सिंह वह केवल आपको स्मरण करने के लिए था की आपने इस मिटटी के साथ विश्वासघात किया है.. अपने मातृभूमि को मुगलों के हाथों बंधक्ल रखते तुम्हे तनिक भी लज्जा नहीं आई.. आपने राजपूत के घर जन्म लेकर राजपूती शान को कलंकित किया है…राजपूत वह कौम है, जो भरण-पोषण देने वाली अपनी जन्मभूमि को अपनी माता मानती है और हर कुर्बानी देकर उसकी रक्षा करती है …पर आप जैसे राजपूत ने अपनी गर्दन बचाने के लिए अपनी माँ को बंधक रखना ज्यादा सही समझा… यदि अकबर से रिश्तेदारी बनाने के स्थान पर अपनी जननी जन्मभूमि की रक्षा के लिए मुगलों के खिलाफ तलवार उठा कर लड़ते लड़ते प्राणों की बलि दे दी होती तो देश की अगली पीढ़ी तुम पर गर्व करती और यदि आप जीवित बच जाते तो आज हम आपके साथ भोजन कर रहे होते और गर्व का अनुभव कर रहे होते. तुम्हारी बातों से जातीय स्वाभिमान और राष्ट्र भक्ति की सुंगध आती है राणा प्रताप सिंह यह सुंगंध मुझे भी अच्छी लगती है. काश हम भी तुम्हारी महत्वकांक्षा में सहयोगी की भूमिका निभा सकते परन्तु अब ईश्वर को मंजूर नहीं है प्रताप सिंह, अब बहुत देर हो चुकी है, अब तो हम सब का भलाई इसी में है की की हम अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए मुग़ल सल्तनत का अंग बनकर उसके साथ खड़े हो जाये.. मैं यही सत्य समझाने के लिए तुम्हारे पास आया था, की अब भी समय है एक मौका है उसे मत गंवाओ मेरी सलाह मान लो और मुग़ल के साथ संधि कर के युद्ध की विनाश लीला से बचो. अगर पूरी राजपूत जाती युद्ध में यूँ ही मरती रही तो हमारा बीज नाश हो जायेगा. अगली पीढियां पढेगी की राजपूत जाती कोई हुआ करती थी और अपने मिथ्या अहंकार और समयानुकूल सोच ना रहने के कारण वह नष्ट हो गयी. नहीं राजा मान सिंह नहीं राणा प्रताप बहुत ही बुलंद स्वर में बोले…यही तोह मुख्य अंतर है हमारी और तुम्हारी सोच में….हम तो यही बात मानते है की दुनिया में केवल वही कौम जीवित बचती है जो अपने आन बान और शान को बचाने के लिए हमेशा अपने सर को कटाने के लिए तैयार रहती है. और वे कौम मिट जाती है जो अपने अस्तित्व को बचाने के लिए शत्रुओं के सामने घुटने टेक देती है. आपने शत्रुओं के आगे घुटने नहीं टेके है लेकिन आपने शत्रुओ के हरम में अपनी बहु बेटियों तक को वास्तु की तरह उठा कर देने का अपराध किया है. भारतवर्ष के इतिहास में आपका नाम काले अक्षरों से लिखा जायेगा.. अगली पीढियां आप पर थूका करेंगी. इसपर मानसिंह चीखे और कहा की प्रताप सिंह लगता है आपकी बुद्धि भ्रष्ट हो चुकी है, आपकी बुद्धि को ठीक करने के लिए अब एक ही रास्ता है युद्ध. अबकी बार आप ठीक भाषा बोल रहे है राजा साहब राणा प्रताप को ऐसी ही भाषा पसंद है जाओ जाकर कह दो अपने सम्राट अकबर से यदि उसे अपनी शक्ति पर इतना ही नाज है तो सेना लेकर आये अपनी और राणा प्रतापसिंह से करे दो दो हाथ. तुम्हे अपने बाहू बल पर घमंड हो गया प्रतापसिंह इसलिए मेरे बार बार सहनशीलता का परिचय देने पर भी तुमने मेरा अपमान किया है. सम्राट अकबर की बात छोड़ो मैं स्वयं तुम्हे सबक सिखाने आऊंगा और इसके लिए तुम्हे ज्यादा दिन प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ेगी. तुम्हे तुम्हारा घमंड चूर चूर करके तुमसे पूछुंगा की एक राजपूत को घर बुला कर अपमान करने का परिणाम क्या होता है. चलो नाराजगी में हीओ सही तुम्हारे दिल में राजपूती जज्बा तो आया..जाइये और दल बल लेकर रण भूमि में शीघ्र आईये हमारी तलवारें आपका युद्ध भूमि में स्वागत करेगी. मान सिंह अपने घोड़े पर स्वर हुए और अपने घोड़े को ऐड लगा दी. राणा प्रताप मान सिंह के घोड़े को देखते रहे जब तक की वह उनके आँख से ओझल ना हो गया. फिर वो अपने सरदारों की ओर मुड़े और मुस्कुराये..चलो अब इतिहास हम पर युद्ध छेड़ने का इल्जाम नहीं लगाएगा…शत्रु स्वयं ही आक्रमण करेगा. हमें केवल प्रतिरक्षा ही नहीं करनी है, अपितु राजपूती शोर्य से ऐसा इतिहास लिखना है जिसे पढ़ते समय इतिहास हम पर गर्व करें.

मान सिंह के आक्रमण की तैयारी | Maharana Pratap history in hindi

Maharana Pratap history in hindi: मान सिंह ने दिल्ली पहुँच कर कर सम्राट अकबर को राणा प्रताप द्वारा किये गए अपमान की कहानी सुनाई. इसे सुनकर अकबर को बहुत प्रसन्नता हुई. परन्तु अकबर ने अपनी प्रसन्नता को प्रकट नहीं होने दी. वह गंभीर मुद्रा में बोला-“तुम्हारा अपमान मेरा अपमान है मानसिंह, परन्तु मैं खून खराबा से बचना चाहता हूँ.खासकर राजपूत का, राजपूत से टकराना मुझे अच्छा नहीं लगता है. राणा प्रताप राजपूत अवश्य है जह्पनाह परन्तु अहंकार ने उसकी बुद्धि भ्रष्ट कर दी है . उसे अपनी वीरता पर बहुत घमंड है. मैंने कसम खाई है की उसका घमंड चूर चूर कर अपने अपमान का बदला लूँगा. अकबर एक क्षण चुप रहा, फिर बोला-“लेकिन मानसिंह तुम तो प्रताप की बड़ी प्रशंसा किया करते थे. तुम तो उसे परम विवेकी और सुलझा हुआ शासक समझते थे. जब जब मैने मेवाड़ को अपने राज्य में मिलाने की बात कही तुमने सदा उसका विरोध किया है. तुम्हारी ही बदौलत अबतक प्रताप चैन से शासन करता रहा, मैं तो राजपूत को अब और ना छेड़ने का मन बना चूका था परन्तु तुम्हारा अपमान…..अकबर ने अपमान की पीड़ा में जलती मानसिंह की आँखों में देख कर बोला, अब तो तुम्हारे अपमान करने की सजा प्रताप को अवश्य मिलेगी, जाओ युद्ध की तैयारियां करो और मेवाड़ की ईट से ईट बजा दो. प्रताप को जीवित पकड़ कर मेरे सामने उपस्थित करो. यदि जीवित ना ला सको तो मुर्दा ही सही. पर उसे दिल्ली अवश्य लाना. अकबर को प्रणाम कर मानसिंह वहां से चला गया. अकबर सोचने लगा…यह राजपूत कौम भी बड़ी विचित्र है. सबसे अधिक लड़ाकू और देशभक्त राजपूत जरा सी बात पर एक दुसरे का खून के प्यासे बन जाते है…कल तक जो मान सिंह राणा प्रताप की प्रशंसा करते नहीं थकता था, आज राणा से अपमानित होकर उसके विनाश का सबब बन गया है. अब राणा प्रताप को धुल में मिलाने का सही अवसर है..मानसिंह की प्रतिशोध की भावना शक्तिसिंह के प्रतिशोध की भावना से मिल कर राणा प्रताप का विनाश अवश्य कर डालेगी. जो काम छ: महीने तक मैंने प्रताप से युद्ध लड़कर केवल चितौड़ के किले को ही जीत सका अब मानसिंह के कारण मैं पूरा मेवाड़ पर अधिकार करूँगा. अकबर ने तुरंत ही शक्ति सिंह को बुलाया. शक्ति सिंह प्रतिशोध की भावना में जल रहा था. उसने आते ही पुछा जहाँपनाह आप प्रताप सिंह से निबटने का मौका कब दे रहे है? अब मेरे सब्र का बाण टूटने लगा है. इस पर अकबर बोला- अब तुम्हे अधिक इन्तेजार की जरुरत नहीं है. शक्तिसिंह. प्रताप से बदला लेने का मौका तुम्हारे पास खुद ही चल के आ गया है. तुम्हारे मगरूर भाई ने मानसिंह का अपमान कर अपनी मौत का फरमान खुद जरी कर दिया है. शाही फ़ौज की तैयारी हो रही है देखे तुम्हारी तलवार कितनी गर्दन नापती है. आप मौका तो दीजिये जहापनाह शक्ति सिंह की बान्हे फड़कने लगी.-मैं अकेला ही शाही फ़ौज की विजय का इतिहास लिखूंगा..अवश्य शक्ति सिंह तुम इन मेवाड़वाशियों को बता दो की तुम्हारी शक्ति को ना पहचान कर कितनी बड़ी भूल की है. अपनी प्रसंसा सुनते ही शक्ति सिंह का मुह खुल गया. घर का भेदी शक्ति ने मुग़ल सम्राट अकबर को बता दिया की प्रताप के पास कुल मिलाकर 20-22 हजार सैनिक है इनमे जान पर खेलजाने वाले राजपूतों के अलावा एक बड़ी संख्या में भील भी है…भील एक जंगली जाती होती है, ये गजब के तीरंदाज होते है. वे एकाएक आक्रमण कर गुफाओं में चिप जाते है..और फिर वहां से अचानक निकल कर बिजली की तेज़ी से आक्रमण करते है.. इनसे निपटने के लिए एक विशेष प्रकार की रणनीति बनानी होगी. अकबर ने शक्ति सिंह का सारा भेद जानने के बाद सफल रणनीति तैयार करने के उद्देश्य से फौजी हाकिमो की बैठक बुलाई..इस बैठक का केंद्र शक्तिसिंह थे..फौजी हाकिम बड़ी ही सावधानी से शक्ति सिंह से सैनिक महत्त्व के सारे भेद उगलवा लिए.अब फौजी हाकिम अपनी जीत के प्रति और अधिक आश्वस्त हो गए. शाही फ़ौज की जीत सुनिश्चित होने लगी. परन्तु बहुत सोच विचार के बाद भी शाही फ़ौज के सेनापति के चयन की समस्या नहीं हल हो सकी. अकबर का मन था की सेना का पूरा दायित्व मानसिंह ही संभाले. मानसिंह पर अकबर का पूरा भरोसा था. मानसिंह अब तक कई शाही फ़ौज का सेनापतित्व कर चुका था. उसके नेतृत्व में सही फ़ौज ने कई युद्ध जीते भी थे. परन्तु संकट ये भी था की मान सिंह के सेनापति बनते ही बागी हो जाने का खतरा था. अकबर के कूटनीति के हिसाब से शक्तिसिंह के हौसले को कहीं से भी कम होने देना शाही फ़ौज की हवा निकलने जैसा था. अकबर ने बहुत ही विवेक से काम लिया और मानसिंह व् शक्तिसिंह को एक ही तुला में तोला और अपने पुत्र सलीम को सेनापतित्व का दायित्व सौंपा. राणा प्रताप को अपनी शक्ति और राजपूत के स्वाभिमान पर अटूट विश्वास था. वे जानते थे की अकबर से युद्ध करना सर्वनाश को आमंत्रण देना है, परन्तु वे ये भी जानते थे की अकबर के सामने स्वेच्छा से झुक जाना और उसकी अधीनता को स्वीकार कर लेना अपमानजनक ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण राष्ट्र के लिए घातक है. यदि इसी तरह सभी शासक मुगलों के समक्ष बिना किसी प्रतिरोध के आत्मसमर्पण करते रहे तो वह दिन दूर नहीं जब राजपूति संस्कृति ही नहीं वरन पूरी की पूरी हिन्दू संस्कृति ही मिट जाएगी. अत्याचार और अन्याय का विरोध ही वास्तव में मानव धर्म है. सच्चे राजपूत का धर्म है, जो पृथ्वी पर आया है, चाहे वो स्वयं हो अथवा अकबर, पर मनुष्य कहलाने का अधिकारी वही है जो अपने धर्म का निर्वाह करते हुए मृत्यु को प्राप्त करे. गुलामी के सौ वर्ष से ज्यादा प्रताप की आजादी का एक पल प्रिय था. गुलामी की चुपड़ी रोटी की जगह आजादी की घास की रोटी प्रताप को ज्यादा मीठी लगती थी. यही कारन था की तमाम दबाव के बावजूद प्रताप ने अकबर के विरुद्ध युद्ध करना ही श्रेष्ट समझा.

हल्दीघाटी का युद्ध 1 | Maharana Pratap history in hindi

Maharana Pratap history in hindi: 5000 चुने हुए सैनिकों को लेकर मानसिंह व शक्तिसिंह शहजादे सलीम के साथ 3 अप्रैल, 1576 ई. को मंडलगढ़ जा पहुंचे. शहजादा सलीम इस सेना का सेनापति था, परन्तु आक्रमण का पूरा सेहरा मानसिंह के सर पर था. सब जानते थे की ये आक्रमण मानसिंह के पहल में ही हो रहा है. इस सेना में मुग़ल सेना की चुनी हुई हस्तियाँ मानसिंह के साथ में थी- गाजी खां, बादक्शी,ल ख्वाजा गियासुद्दीन, आसफ खां आदि को साथ लेकर मानसिंह ने दो माह तक मांडलगढ़ में मुग़ल सेना का इन्तेजार किया. महाराणा प्रताप को जब यह पता लगा की शक्तिसिंह को साथ लेकर मानसिंह मेवाड़ पर आक्रमण के लिए चल पड़ा है, और मंडलगढ़ में रूककर एक बड़ी मुग़ल सेना का इन्तेजार कर रहा है, तो महाराणा प्रताप ने उसे मंडलगढ़ में ही दबोचने का मन बना लिया, परन्तु अपने विश्वसनीय सलाहकार रामशाह तोमर की सलाह पर राणा प्रताप ने इरादा बदल दिया. रणनीति बने गयी की मुगलों को पहल करने देनी चाहिए और उस पर कुम्भलगढ़ की पहाड़ियों से ही जवाबी हमला किया जाए. अपनी फ़ौज की घेरा को मजबूत करने के लिए महाराणा प्रताप कुम्भलगढ़ से गोगुंडा पहुंचे. उनके साथ उस समय झालामान,झाला बीदा, डोडिया भीम, चुण्डावत किशन सिंह, रामदास राठोड, रामशाह तोमर, भामाशाह व् हाकिम खां सूर आदि चुने हुए व्यक्ति थे. जून के महीने में बरसात के आरम्भ में मुगल सेना ने मेवाड़ के नै राजधानी कुम्भलगढ़ के चरों ओर फैली पर्वतीय श्रृंखलाओं को घेर लिया. कुम्भलगढ़ प्रताप का सुविशाल किला था, जो की प्रताप की समस्त गतिविधियों का केंद्र था. इसी जगह प्रताप का जन्म हुआ था और कहा जाता है की विश्व में चीन की दिवार के बाद सबसे लम्बी दीवारों में से एक है. मानसिंह तथा मुग़ल शहजादा ने सारी जानकारी प्राप्त कर यह रणनीति तैयार की कि प्रताप को चारो ओर से घेर कर उस तक रसद पहुँचने के सारे रास्ते बंद कर दिए जाए. कुम्भलगढ़ के बुर्ज से महाराणा प्रताप ने जब मुग़ल सेना और उसकी घेराबंदी का निरिक्षण किया तब वे समझ गए की राजपूतों के अग्निपरीक्षा के दिन आ गए है. जहाँ भी नजर जाते थी बरसाती बादलों के तरह फैले मुग़ल सेना के तम्बू नजर आ रहे थे. मुग़ल सेना का घेरा बहुत मजबूत था, इतना मजबूत था की उससे नजर बचाकर परिंदा भी कुम्भलगढ़ मे प्रवेश नहीं कर सकता था. मुग़ल सेना में अधिक संख्या भीलों और नौसीखिए की थी. तीर कमान, बरछी, भाले, और तलवारे ही उनके हथियार थे. मुग़ल सेना के पास तोपें थे और अचूक निशाना लगाने वाले युद्ध पारंगत तोपची थे. महाराणा प्रताप के पास एक भी टॉप नहीं थी पर उनका एक एक सैनिक अपना सर में कफ़न बंधकर निकला था, जान लेने और जान देने का जूनून प्रताप के हर सैनिक में था. मुग़ल सेना के निरिक्षण के बाद महाराणा प्रताप अपने प्रमुख सलाहकारों एवं सरदारों के साथ अपनी सेना के सम्मुख पहुंचे. और सैनिकों को सम्भोधित करते हुए कहा –“जान लेने और जान देने का उत्सव अब हमारे सिर में है, मुग़ल सेना काले घटाओं की तरह कुमलमेर की पहाड़ियों पर छा गयी है, एक लाख से अधिक मुग़ल सेना ने हमें इस आश को लेकर घेरा है की हम संख्या में कम है और विस्तार देख कर ही डर जायेंगे, परन्तु शायद वो भूल गए है की सूर्य की एक मात्र किरण अत्यंत अन्धकार को विदीर्ण करने के लिए काफी होती है. मुग़ल सेना का सेनापति भावी मुग़ल सम्राट शहजादा सलीम कर रहा है, और उसका मार्गदर्शन कर रहे है देश के दो गद्दार राजपूत मानसिंह और शक्तिसिंह. मानसिंह वो गद्दार है जिसने अपनी बहन को शहजादे सलीम से ब्याह दी और शक्तिसिंह इस मेवाड़ धरती का गद्दार है जो की दुर्भाग्यवश मेरा भाई है, उसे भाई कहते हुए मुझे लज्जा आती है, परन्तु यह सच है की आज उसने राजपूती शान का बट्टा लगाया है, वह मुग़ल सेना के साथ मिलकर अपनी ही धरती और अपने ही भाई में चढ़ाई करने आया है. शक्ति सिंह इस जगह से भली भांति परिचित है. वह घर का भेदी है, अगर आज वो उनके साथ नहीं होता तो हमारे बहुत से रहस्य शत्रुपक्ष को पता नहीं लग पाते, और उस स्थिति का लाभ उठा कर हम शत्रु पक्ष को अनेक तरह से पटखनी दे सकते थे. परन्तु ये हमारे मेवाड़ धरती का दुर्भाग्य है की उसी का एक बेटा विदेशी मुग़ल सेना को लेकर उसी की मनंग उजाड़ने आया है.परन्तु साथियों विजय सिर्फ हमारी होगी क्योंकि ये हमारी स्वाधीनता बचाने की लड़ाई है, और हम अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिए अपना खून बहाना भलीं भांति जानते है.हम गिन गिन कर शत्रुओं का सिर काटेंगे. हमारे एक एक सैनिकों को पच्चीस पच्चीस मुग़ल सैनिकों का सर काटना है. हमारा हौसला बुलंद हो, हमारी भुजाओं की ताकत के सामने, हमारे, युद्ध कौशल, व् देशभक्ति के जूनून के सामने एक भी शत्रु सैनिक यहाँ से जीवित बचकर नहीं जा पायेगा. हम एक एक को कुमाल्मेर की पहाड़ियों में दफ़न कर देंगे. आओ प्रतिज्ञा करें की हम एक एक सैनिकों को मुगलों के पच्चीस पच्चीस सैनिकों के सिर काटने है, हमारे जीते जी शत्रु हमारी मातृभूमि पर कदम नहीं रख सकेगा, इसके लिए चाहे हमें कोई भी कीमत चुकाने पड़े. हम इन मुग़ल सेना को बता देंगे की हम भले ही मर जाये पर युद्ध भूमि से पिछे हटना हम राजपूतों के खून में नहीं है. इसप्रकार से महाराणा प्रताप की जोरदार आवाज से सैनिकों में प्रोत्साहन भरा जाने लगा, उनके इस बातों को सुनकर उनके सैनिकों का मनोबल आसमान की उचाईयों में पहुंचा दिया. सबने जोरदार अपने तलवारे खिंची और और बुलंद आवाज में घोषणा की कि अब ये तलवार शत्रु का रक्त पी कर ही म्यान में वापस जाएगी. दोनों ओर की सेना तैयार हो गयी परन्तु हमला नहीं हुआ, महाराणा प्रताप ने मन बना लिया था की पहले मुग़ल सेना पहल करेगी और उसके हमला करते ही हमारी सेना उनपर टूट पड़ेगी परंतू मान सिंह ने यह युद्धनिति तैयार की थी की मुग़ल सेना सीधे हमला कर पहाड़ियों के बीच में नहीं फसेंगी, वो उनको बस कुछ दिन घेरे रखेंगे ताकि उनका रसद उनतक ना पहुँच सके और महाराणा प्रताप की सेना पहाड़ियों से उतरकर खुले मैदान में आ सके जिससे उन्हें हराना ज्यादा आसान हो जाये. शहजादा इस पक्ष में था की आगे बढ़कर उनपर आक्रमण किया जाये ताकि युद्ध जल्दी ख़त्म हो सके.

हल्दीघाटी का युद्ध-2 | Maharana Pratap history in hindi

Maharana Pratap history in hindi: शहजादे सलीम मुग़ल सेना की एक टुकड़ी आगे बढ़कर महाराणा प्रताप में आक्रमण करने का निर्देश दे दिया, मानसिंह ने उसे समझाने का प्रयत्न किया परन्तु वो नहीं माना. मुगलसेना ने जैसे ही हल्दीघाटी के संकरे घाटी में प्रवेश की राणा प्रताप की सेना ने एक एक कर कई मुग़ल सेना को मौत के घाट उतार दिया क्योंकि हल्दीघाटी की प्राकृतिक बनावट कुछ इस प्रकार से थी की केवल एक बार में एक सैनिक अपने घोड़े के साथ आगे बढ़ सकती थी, इस संरचना का लाभ उठा कर राणा प्रताप के सैनिकों ने मुग़ल सेना के कई सैनिकों को मार डाला, उस समय ये देख कर ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो, ये युद्ध केवल राणा प्रताप के हाथ में ही है, परन्तु तुरंत ही सलीम ने अपने सेना को पीछे हटने का संकेत दे दिया. अब उन्हें ये समझ नहीं आ रहा था की प्रताप तक पहुँचने का कौन सा मार्ग लिया जाए, ऐसे समय में शक्तिसिंह निकलकर आया और उसने शहजादे सलीम के सामने हल्दीघाटी में सेना को प्रवेश कराने की जिम्मेदारी ली. शक्तिसिंह के मार्गदर्शन में मुग़ल सेना हल्दीघाटी के मार्ग से पहाड़ी क्षेत्र में प्रवेश करने लगी. महाराणा प्रताप ने जब ये देखा की मुग़ल सेना हल्दी घाटी के पीछे वाले रास्ते से आगे बढ़ रही है तो उन्हें ये समझते देर ना लगी की किसने उन्हें ये रास्ता सुझाया होगा. अब राणा प्रताप ने आगे बढ़कर हल्दीघाटी में ही मुगल सेना को दबोचने की रणनीति बनाई. राणा का आदेश पाते ही राजपूत नंगी तलवार लिए, मुग़ल सेना पर टूट पड़े. भीलो का समूह जहर बुझे तलवार से मुग़ल सेना का संहार करने लगी. पहले ही हमले में राणा प्रताप ने मुग़ल सेना के छक्के छुड़ा दिए, देखते ही देखते मुग़ल सेना की लाशे बिछनी लगी. मुग़ल सेना में, मानसिंह सेना की बीचोबीच था. सैयद बरहा दाहिनी ओर, बाई ओर गाजी खां बादक्शी था, जग्गनाथ कछावा तथा गयासुद्दीन आसफ खां इरावल में थे. आगे के भाग में चुना-ए-हरावल नाम का विख्यात मुग़ल सैनिक था जो की कुशल लड़ाकू माना जाता था. राणा प्रताप के सेना में बीच में स्वयं राणा प्रताप और दाहिनी ओर रामशाह तोमर तथा बाई ओर रामदास राठोड था. राणा प्रताप ने मुग़ल सेना पर अपनी सारी शक्ति झोंक दी थी, अतिरिक्त सेना के रूप में केवल पोंजा भील था, जो अपने साथियों के साथ पहाड़ियों में छिपा रहा.. शहजादा सलीम अपने हाथी पर स्वर था. जब उसने देखा की महाराणा प्रताप अपने तलवार से मुग़ल सैनिकों को गाजर मुल्ली की तरह कटता जा रहा है और मुग़ल सेना के पैर उखड़ने लगे है, तो उसने तोंपे चलने का आदेश दे दिया. तोंपो के गोले जब आग उगलने लगे तो राणा प्रताप के सेना के पास मुग़ल सेना के तोपों का कोइ जवाब ना था. उनकी ढालें, तलवारे, बरछे और भाले उनके तोपों के आगे बौने पड़ने लगे. अचानक से लड़ाई का रुख ही बदल गया और राजपूतों की लाशे बिछनी लगी. महाराणा ने राजपूत सैनकों की एक टुकड़ी को आदेश दिया की आगे बढ़कर उनकी तोपें छीन ली जाए, सैंकड़ो सैनिक अपनी जान हथेली में रख कर उन तोंपो को छिनने के लिए आगे बढ़ गए, परन्तु इसके विपरीत तोप के गोले उनगे शरीर की धज्जियाँ उड़ाने लगे. ये देख कर महाराणा को बहुत दुःख हुआ, परन्तु यह एक कडवी सच्चाई थी, तोंपो की मार को परवाह किये बगैर राणा प्रताप की सेना दुगुनी उत्साह के साथ मुग़ल सेना पर टूट पड़ी. स्वयं राणा प्रताप घाटी से निकलकर गाजी खां की सेना में टूट पड़े, जो की बहुत देर से घाटी के द्वार में कहर ढा रही थी, राणा प्रताप ने गाजी खां के सेना की परखच्चे उडा दिए, इस प्रकार मुग़ल सेना और राणा प्रताप के बीच दो दिन तक युद्ध हुआ, परन्तु कोई भी नतीजा निकल कर सामने नहीं आया. दोनों ओर से सैनिकों की लाशे बिछ गयी थी, पूरा युद्ध क्षेत्र लाशो से पट गया था. मुग़ल सेना के तोंपो से निकले गोलों ने राजपूत सेना में कहर ढाया था. संख्या में चार गुनी होते हुए भी मुग़ल सेना राजपूत सेना के सामने टिक नहीं पा रही थी. युद्ध के दौरान कई ऐसे मौके आये जब मुग़ल सेना भाग खड़े हुए, परन्तु उन्हें नया उत्साह देकर वापस युद्ध के लिए भेज दिया गया. हल्दी घाटी के युद्ध में त्तिसरा दिन निर्णायक रहा, अपने जांबाज सैनिकों के लाशों के अम्बार देखकर महाराणा प्रताप बौखला गए थे. Maharana Pratap history in hindi: सवानवदी सप्तमी का दिन था, आकाश में बदल भयंकर गर्जना कर रहे थे.. आज राणा प्रताप अकेले ही पूरी फ़ौज बन गए थे. दो दिन तक वो अपने परम शत्रु मानसिंह को ढूंढते रहे जो युद्ध में मुलाकात करने की धमकी दे गया था. राणा प्रताप का बहुत अरमान था की वो उससे युद्ध करे और अपना शोर्य दिखाए, परन्तु मानसिंह अपने सेना के बीचोबीच छिपा रहा. आज के युद्ध में महाराणा प्रताप ने फैसला कर लिया था की वो मानसिंह को अवश्य ढूँढ निकालेंगे, वो बहुत ही खूबसूरत सफ़ेद घोड़े चेतक में बैठे शत्रुओं का संहार करते करते मानसिंह को ढूँढने लगे. सैनिकों का सिर काटते हुए वो मुग़ल सेना के बीचो बीच जा पहुंचे. उन पर रणचंडी सवार थी, देखते ही देखते उन्होंने सैंकड़ो मुगलों की लाशे बिछा दी. महाराणा के साथ उनके चुने हुए सैनिक थे वो जिधार निकल जाते थे मुग़ल सेना में हाहाकार मच जाता था, मुग़ल युद्ध भूमि को छोड़ भागने को मजबूर हो जाते थे, मुग़ल सेना अब उनसे सीधे सीधे लड़ाई करने में भयभीत हो रही थी, महाराणा मुग़ल सेना को चीरते हुए आगे बढ़ते गए. कुछ दूर जाने के बाद एक एक कर के उनके सहायक सैनिक ढेर होते गए. अब वो मुग़ल सेना के बीचो बीच लगभग अकेले थे, तभी उनकी नजर शहजादे सलीम में पड़ गयी, सलीम एक बड़े हाथी में सवार होकर लोहे की मजबूत सलाखों से बने पिंजड़ा में सुरक्षित बैठा युद्ध का सञ्चालन कर रहा था. महाराणा ने सलीम को देखा और चेतक को उसके ओर मोड़ लिया, सलीम ने जैसे ही देखा की महाराणा उसके ओर आ रहा है उसने अपने महावत को आदेश दिया की हाथी को दूसरी दिशा में मोड़ कर दूर ले जाया जाये, जब तक वो उनके पास पहुँचते एक कुशल मुगल सेना की टुकड़ी ने उन पर जान लेवा हमला किया परन्तु महाराणा प्रताप ने सभी का वार को अच्छी तरह से बेकार कर दिया और सबको मौत के घाट उतार दिया. अचानक से महाराणा की नजर मान सिंह पर पड़ी और उसे देखते ही महाराणा का खून खौलने लगा,मानसिंह हाथी पर सवार था, उसके पास अंगरक्षकों का एक बड़ा जमावड़ा था, मानसिंह के सुरक्षा व्यूह को तीर की तरह चीरते हुए, महाराणा का चेतक हाथी के बिलकुल ही नजदीक पहुँच गया, मानसिंह को ख़त्म करने के लिए महाराणा प्रताप ने दाहिने हाथ में भाला संभाला और चेतक को इशारा किया की वह हाथी के सामने से उछल कर गुजरे, चेतक ने महाराणा का इशारा समझ कर ठीक वैसा ही किया, परन्तु चेतक का पिछला पैर हाथी के सूंढ़ से लटका तलवार से चेतक का पैर घायल हो गया, परन्तु महाराणा उसे देख ना पाए, घायल होने के क्रम में ही महाराणा ने पूरी एकाग्रता से भाला को मानसिंह के मस्तक में फेंक डाला, परन्तु चेतक के घायल होने के कारण उनका निशाना चूक गया, और भला हाथी में बैठे महावत को चीरता हुआ लोहे की चादर में जा अटका, तबतक महाराणा की ओर सभी सैनिक दौड़ पड़े, और मानसिंह महाराणा के डर से कांपता हुआ हाथी के हावड़े में जा छिपा,भला हावड़े से टकरा कर गिर गया, राजा मानसिंह को खतरे में देख माधो सिंह कछावा महाराणा पर अपने सैनिकों के साथ टूट पड़े, उसने महाराणा पर प्राण घातक हमला किये. उसके साथ कई सैनिकों ने महाराणा पर एकसाथ हमला किये जिससे महाराणा के प्राण संकट में पद गए. एक बरछी उनके शरीर में पड़ी और महाराणा लहू लुहान हो गए. उसी समय एक और तलवार का वार उनके भुजा को आकर लगी. परन्तु अपनी प्राणों की परवाह किये बगैर महाराणा लगातार शत्रुओं से लोहा लेते रहे. अपने स्वामिभक्ति दिखा रहा चेतक भी हर संभव महाराणा का साथ दिए जा रहा था, चेतक का पिछला पैर बुरी तरह से घायल हो चूका था, परन्तु अश्वों की माला कहा जाने वाला अश्व दुसरे अश्वों की तरह घायल हो जाने पर युद्ध भूमि में थककर बैठ जाने वालों में से नहीं था. झालावाडा के राजा महाराणा प्रताप के मामा ने जब ये देखा की महाराणा प्रताप बुरी तरह से घायल हो गए है, और लगातार शत्रु से लड़े जा रहे है, तब उन्होंने अपना घोडा दौडाते हुए महाराणा प्रताप के निकट जा पहुंचे, उन्होंने झट से महाराणा का मुकुट निकला और अपने सिर में पहन लिया, फिर राणा से बोले-“तुमको मातृभूमि की सौगंध राणा अब तुम यहाँ से दूर चले जाओ, तुम्हारा जीवित रहना हम सबके लिए बहुत जरूरी है. महाराणा ने उनका विरोध किया परन्तु कई और सैनिको ने उनपर दवाब डाला की आप चले जाइये, अगर आप जीवित रहेंगे तब फिर से मेवाड़ को स्वतंत्र करा सकते है, महाराणा का घोडा चेतक अत्यंत संवेदनशील था, अपने स्वामी के प्राण को संकट में देख तुरंत ही उसने महाराणा को युद्ध क्षेत्र से दूर ले गया. मन्नाजी अकेले ही मुग़ल सेना के बीच घिर चुके थे, मुग़ल सेना उन्हें महाराणा समझ कर बुरी तरह से टूट पड़े, उन्होंने बहुत देर तक अपने शत्रुओं का सामना किया परन्तु अंत में वीर गति को प्राप्त किया. मन्ना जी के गिरते ही राणा प्रताप के सेना के पैर उखड़ गए.

शक्तिसिंह का हृदय परिवर्तन | Maharana Pratap history in hindi

Maharana Pratap history in hindi: शक्तिसिंह ने महाराणा प्रताप को घायल शारीर को लादे हुए चेतक को भागते देख लिया था. उसने ये भी देखा की झाला नरेश ने किस तरह अपनी जान देकर महाराणा प्रताप को बचाया था. प्रताप के लिए हजारों राजपूत हसते हसते अपनी जान न्योछावर कर गए. और तीन दिन के भीषण युद्ध के सामने मुग़ल सेना त्राहि त्राहि कर उठी थी. यह सब देख कर शक्तिसिंह को बहुत पछतावा होने लगा. हजारों राजपूतों को लाशों का ढेर बनाने एवं देवता सामान भाई की प्राण को संकट में डालने के लिए शक्तिसिंह ही जिम्मेदार था. यदि उसने हल्दीघाटी में घुसने और महाराणा प्रताप की कमजोरियों को मुगलों के सामने ना बताया होता तो आज के युद्ध का परिणाम कुछ और ही होता, और इतिहास महाराणा प्रताप के साथ साथ शक्तिसिंह पर भी उतना ही गर्व करता. शक्ति सिंह तुरंत ही अपने घोड़े की ऐड लगाई और उधर चल पड़ा जिस ओर चेतक गया था. इधर सलीम ने घोषणा कर दिया की प्रताप युद्ध के मैदान से जिन्दा भाग गए है उसको जिन्दा पकड़ कर लाने वाले को भरी इनाम दिया जायेगा. दो मुग़ल सैनिको को शक्तिसिंह ने प्रताप का पीछा करते हुए पाया.शक्तिसिंह समझ गया की मुग़ल शहजादा से भरी इनाम के लालच में घायल राणा प्रताप का पीछा कर रहे है. शक्तिसिंह ने अपने घोड़े को वायु वेग से दौड़ाया. युद्ध के मैदान से निकलने के बाद चेतक की गति कुछ धीमी पद गयी थी..चेतक के पैर से भी रक्त की धारा बहे जा रही थी. महाराणा प्रताप लगभग लगभग अछेत की स्थिति में हो चुके थे. अचानक महाराणा प्रताप को घोड़े की ताप सुनाई दी जब उन्होंने पीछे पलट के देखा तो दो मुग़ल सैनिक उनका वायु वेग से हाथ में तलवार लिए उनकी ओर आ रहे है, चेतक भी बहुत तेज़ी से भागा, परन्तु दुर्भाग्य वश एक बड़ा सा नाला उनके बीच आ गया. वो नाला एक पहाड़ी को दुसरे पहाड़ी से अलग करता था, उन दोनों पहाड़ियों के बीच की लम्बाई 27 फूट की बताई जाती है, चेतक वो घोडा था जो अपनी स्वामी की इशारे को अच्छी तरह से समझता था, वो अपने स्वामी के इशारे से वायु वेग में दौड़ना जानटा था. ऐसा करते समय वो अपने प्राणों की परवाह तक न करता था. उसने बिना एक पल के देरी के उस नाले में जोरदार छलांग लगा दिया. परन्तु घायल चेतक उस पार जाने के बाद दुबारा फिर कभी नहीं उठ पाया, महाराणा प्रताप तो सकुशल थे पर एक मूक जीव ने अपने स्वामीभक्ति दिखाते हुए वीरगति को प्राप्त किया और अपना नाम इतिहास के स्वर्णिम अक्षरों में लिखवा गया. युद्ध में घायल महाराणा प्रताप की उस समय बड़ी ही असहाय स्थिति हो गयी. महाराणा प्रताप के शारीर से टिके अर्ध्मुछित से चेतक की मृत्यु पर रो पड़े. जब उन दो मुगलों ने ये देखा तो वे आश्चर्य से देखते रह गए, उन्होंने अपने घोड़े को भी उस नाला को पार करने का आदेश दिया पर हर घोडा चेतक नहीं हो सकता है. शक्ति सिंह भी ये सारा नजारा देख रहा था. उस समय उसके ह्रदय में अपने प्रति ग्लानी की भावना प्रकट होने लगी वह अपने आप को कोशने लगा की जब मेवाड़ का एक एक पशु अपने मातृभूमि और अपने स्वामिभक्ति में अपना प्राण न्योछावर कर सकता है तो मैं तो फिर भी मनुष्य हूँ. दोनों मुग़ल सैनिक नाला पार कर महाराणा प्रताप की ओर बढ़ने लगे. जैसे ही दोनो मुग़ल सैनिक ने महाराणा प्रताप में प्राण घातक वार करने का प्रयास किया वैसे ही शक्तिसिंह ने विद्युत् गति से झपटकर दोनों की गर्दने काट दी, जब महाराणा प्रताप ने चौंक कर पीछे पलट कर देखा- तो उन्होंने पाया की पीछे मुग़ल सैनिको की लाशे पड़ी हुई है. और शक्तिसिंह दोनों हाथ जोड़े अपने घुटने पर बैठा हुआ है. शक्तिसिंह…एक भावुकता भरी आवाज महाराणा के मुख से निकल पड़ी. और शक्ति सिंह हाथ जोड़े अपने घुटने पर बैठा रहा. अच्छा हुआ तुम आ गए इस समय मैं पूरी तरह से असहाय हूँ, लहूलुहान हूँ, मेरे प्रिय चेतक की मौत ने मुझे जीते जी मार डाला है,इस समय मैं तलवार नहीं उठाऊंगा तुम अपनी इच्छा पूरी कर लो.राणा ने चेतक की कमर में से जब अपना चेहरा उठाया तो शक्ति सिंह की चीख निकल गयी. नहीं भैया नहीं मैं आपकी आँखों में आंसू नहीं देख सकता. राणा ने फिर गर्दन घुमा ली और फिर चेतक के शारीर से लिपट कर रोने लगे. राणा को रोते हुए देख शक्तसिंह भी रो पड़ा.उसने कहा भैया इस सब का जिम्मेदार मैं हूँ. आपसे प्रतिशोध लेने की भावना में मैं पागल हो गया था. यह कहकर शक्तिसिंह फूटफूट का रोने लगा. उसने तुरंत ही अपने आप को संभाला और और फिर राणा प्रताप के पास जा कर कहने लगा मैं जनता हूँ की मैं क्षमा के योग्य नहीं हूँ परन्तु आप मुझे एक बार क्षमा कर दीजिये मुझे एक बार आप गले से लगा लीजिये….और शक्तिसिंह फिर रो पड़ा. प्रताप ने गर्दन उठाई उनका चेहरा खून और आसुओं से सना था. तुम मेरे ही नहीं पुरे मेवाड़ के अपराधी हो शक्ति सिंह तुमने अपने मातृभूमि के साथ विश्वासघात किया है. अब मैं तुम्हारी आँखों में प्रायश्चित के आंसू देख रहा हूँ. जी करता हूँ की अपने छोटे भाई को गले लगा लूँ. परन्तु यह क्षत्रिये धर्म मुझे इसकी अनुमति नहीं देता है, मैं मेवाड़ी सिपाही हूँ और तुम मेवाड़ द्रोही शत्रु सैनिक. यह कहकर राणा ने गर्दन घुमाई और फिर शक्तिसिंह को देखे बगैर ही बोले शक्तिसिंह तुम मेरी नजरों से दूर हो जाओ मैं नहीं चाहता की मेरे मन में कोई कमजोरी उभरे . मैं जा रहा हूँ भैया. शक्ति सिंह ने भाववेग से थर्राते हुए कहा- बस मेरा एक निवेदन मान लो मेरा ये घोड़ा लो और तुरंत ही यहाँ से दूर चले जाओ. आपको मेवाड़ की जरुरत है. आप यह युद्ध हारे नहीं है केवल ऐसी परिस्थिति आ गयी है की युद्ध को रोकना पड़ रहा है. और आब आपके चरणों की सौंगंध है की मेरी ये तलवार अब मेवाड़ के साथ होगी. अपनी करनी से मैं अपने पर लगे इस्कलांक को धो डालूँगा और अगर जिविर्ट बचा तोह आपके गले लगूंगा. प्रताप सिंह शक्तिसिंह की बातें सुनते रहे. उनके आँखों से बहते हुए आंसू उनके चेहरे पर लगे हुए खून को धोते रहे. परन्तु शक्तिसिंह अब ये नहीं देख पाया था की अब जो आंसू राणा की आँखों से बह रहे थे वो अपने छोटे भाई के लिए थे,परन्तु वह रे क्षत्र्ये धर्म, उस क्षत्रिये शूरवीर राणा ने अपने भाई से वो आंसू छुपा लिए और धर्म तथा भाई में से धर्म को ज्यादा महत्त्व देकर धर्म को विजय स्थापित किया. राणा ने अपने आप को संभाला वे उठे शक्तिसिंह का घोड़ा ले लिया , शक्तिसिंह नजरें झुकाए खड़ा रहा उसके आँखों में प्रायश्चित के आंसू बह रहे थे. मैं तुम्हारा ये एहसान कभी नहीं भूलूंगा शक्तिसिंह, तुमने मुझ अर्धमूर्छित की जान लेने वाले मुग़ल सैनिक को मार कर मेरी जान बचाई है और अभी सुरक्षित स्थान पर पहुँचने के लिए अपना घोडा दे रहे हो.मेवाड़ याद रखेगा तुम्हारी ये भूमिका. राणा तुरंत घोड़े पर सवार हुए, उनके चरण छूने के लिए शक्तिसिंह ने हाथ आगे बढ़ाये पर तबतक राणा घोड़े की ऐड ले चुके थे. वायुवेग से घोड़े दौडाते हुए राणा कुछ ही समय में शक्तिसिंह की आँखों से ओझल हो गए.

युद्ध की समीक्षा और अकबर द्वारा मेवाड़ को पूरी तरह से कब्जे में लेना | Maharana Pratap history in hindi

Maharana Pratap history in hindi: अपने भाई मेवाड़ के महाराणा प्रताप सिंह को अपना घोड़ा देने के बाद शक्तिसिंह नदी तैर कर नदी पार की और किसी तरह से छुपता छुपाता मुग़ल छावनी तक पहुंचा. जब वहां पहुंचा तो शक्तिसिंह ने देखा की चारों तरफ अफरातफरी मची हुई है “महाराणा भाग गया महाराणा भाग गया…” का शोर हर तरफ था. परन्तु किसी के भी चेहरे में जीत की ख़ुशी नहीं थी. महाराणा और उनके वीर सैनिकों ने युद्ध भूमि में जो कौशल दिखाया था उसके कारण उनके छावनी में एक कौतुहल सा मचा था. सभी मुग़ल सैनकों के चेहरों में महाराणा का आतंक साफ़ साफ़ नजर आ रहा था.. महाराणा का युद्ध से सकुशल निकल जाने से उन्हें दो सन्देश मिले थे, एक तो वे महाराणा को नहीं जीत सके जिसके कारण सागर सी विशाल मुग़ल सेना के मुख में एक जोरदार तमाचा पड़ गया था, महाराणा ने ना केवल वहां से निकल कर दिखाया अपितु अपने विचित्र रण कौशल से असीम बहादुरी का परिचय भी दिया था जो की शत्रुओं के दिल में दहशत का कारण बन बैठा था. और दूसरा ये था की उन्हें मन ही मन ये भय सता रहा था की कहीं फिर से महाराणा अपने मुट्ठी भर सैनिकों को लेकर ना आ जाए और अपने घोड़े के तापों तले हमें रौंद डाले. शहजादा सलीम का दिमाग चकरा गया. उसकी समझ में नहीं आ रहा था की इतना बड़ा करिश्मा हुआ कैसे. इतने कम सैनिको के साथ घोड़े पर सवार महाराणा प्रताप ने तीन दिन तक मुगलों की एक लाख वाली सेना को बुरी तरह से रौंद डाला. मुग़ल सेना के बीचोबीच पहुँच कर उसने राजा मानसिंह, स्वयं उसे और लगभग सभी मुग़ल सरदारों को चुनौती दी और जब वह इतनी बुरी तरह घायल हो गया और उसके सभी बहादुर साथी मारे गए तब मुग़ल सेना के व्यूह को चीरता हुआ वह घायल राणा युद्ध स्थल से सुरक्षित बहार निकल गया? उसके पास एक घोडा और एक तलवार के अलावा और कुछ भी नहीं बचा था. इतनी घायल स्थिति में तो बाख कर कोई भी नहीं निकल सकता था फिर ऐसी हालत में ये चमत्कार हुआ कैसे. शहजादा सलीम, मानसिंह और उसके सरदारों के साथ बैठ कर युद्ध की तहकीकात कर रहा रहा था. तब तक कुछ सैनिक वहां आ पहुंचे और और शहजादे सलीम को यह सूचना दी की शक्तिसिंह को मुग़ल छावनी में देखा गया है. उसे उसी दिशा से आते देखा गया है जिधर राणा भगा था. शहजादे सलीम को शक्तिसिंह में शक हुआ. उसके पास पहले से ही एक सूचना थी की महाराणा के युद्ध स्थल से भाग जाने के बाद शक्तिसिंह भी अपने घोड़े में बैठ कर वहां से गायब हो गया था. कुछ ही समय में शहजादे सलीम के पास दो सैनिक आ गए और उन्हें सूचना दी की यहाँ से कुछ दूर में राणा प्रताप के घोड़े का शव पड़ा है और पास में ही दो मुग़ल सैनिकों के कटे हुए सर भी पड़े है, यह सुनते ही शहजादा सलीम क्रोध से पागल हो उठा. उसने तुरंत ही शक्तिसिंह को गिरफ्तार करने का आदेश दे दिया. मुग़ल सैनिकों ने शक्तिसिंह को गिरफ्तार कर लिया. पूछताछ के समय शक्तिसिंह ने एक बहादुर राजपूत की तरह आगे बढ़ कर मुग़ल सैनिकों के हत्या का अभियोग स्वीकार किया. शक्तिसिंह का उत्तर सुनकर सलीम का सिर घूम गया. वह यह निष्कर्ष में पहुंचा की यदि आज शक्तिसिंह ने घयाल महाराणा की रक्षा नहीं की होती तो आज महाराणा मुग़लो की गिरफ्त में होता. राणा प्रताप की जीवित बाख जाना मुगलों की हार थी. हल्दीघाटी का युद्ध जीत कर भी वो हार गए थे और वे अच्छी तरह से जानते थे की यदि महाराणा जीवित बाख गए है तो वे चुचाप बैठने वाले नहीं है. इस जीत को मुग़ल अपनी अंतिम जीत नहीं कह सकते थे. शक्तिसिंह का अपराध को संगीर्ण अपराध माना गया. उसे मुग़ल दरबार में विद्रोह की संज्ञा दी गयी तथा अंतिम निर्णय तक कैद में रखने का आदेश दे दिया. शक्तिसिंह के घोड़े पर सवार राणा प्रताप दूर पहाड़ियों में पहुंचे. वहां उन्हें वफादार भील मिल गए. भीलों ने महाराणा को एक गुप्त गुफा में ले गए. वहां उनके चिकित्सा और देखभाल की पूरी व्यवस्था कर दी. और स्वयं हाथों में बाण लेकर दूर दूर तक बिखर गए और मुग़ल सेना की गतिविधियों पर नजर रखने लगे. कई दिनों की चिकित्सा और देखभाल के बाद महाराणा के घाव भरने शुरू होने लगे. वे गुफा में बैठे सोच रहे थे –कितना भयानक और विनाशकारी युद्ध था. तीन दिन के युद्ध ने 20 हजार सैनिकों में से 14 हज़ार सैनिकों को निगल गया, मेरे सभी महत्वपूर्ण स्तम्भ मेरी रक्षा के लिए अपना प्राण न्योछावर कर दिए. जब उन्होंने चेतक के बारे में सोचा तो वो उसी समय फूट फूट कर रो पड़े , वे सोचने लगे की पता नहीं कौन सा मंत्र झालापति ने चेतक के कानो में फूंका की चेतक अपनी मौत से झूझ कर मेरी रक्षा हेतु वायुवेग से दौड़ पड़ा, उनकी समझ में ही नहीं आ रहा था की चेतक दौड़ रहा है या वायु में उड़ रहा है, उसकी छलांग देख कर शत्रु के माथे भी पसीने आ जाये. अपने युद्ध की समीक्षा करते करते महाराणा भावुक हो गए. फिर उन्हें शक्तिसिंह का ध्यान आया- वे सोचने लगे की अगर शक्तिसिंह वहां सही समय पर ना पहुंचा होता तो उनका बचना तो लगभग असंभव था. शक्तिसिंह को गद्दार कहूँ या मेवाड़ का रक्षक…आज जो मेवाड़ पति राणा प्रताप इस गुफा में बैठा है वो केवल शक्तिसिंह के कारण ही. वो इस बात से बहुत दुखी थे क्योंकि इस युद्ध में राजपूत ही दुसरे राजपूत से लड़ा था. यह अकबर की ही निति थी की राजपूतों को राजपूतों के विरुद्ध लडवाया जाए. ये सब सोचते सोचते सोचते राणा प्रताप को एकाएक अपने हार की एक और कारण याद आया वो था तोंपो का प्रहार जिसके कारण राजपूत सैनिकों के पाँव उखड़ गए थे. भीलों के विष बुझे तीरों ने मुगलों को पीछे हटने में मजबूर कर तो दिया था पर जब उन्होंने तोंपो का इस्तेमाल किया तब हम कमजोर पड़ गए थे काश अगर हमारे पास भी कुछ तोंपे होती तो आज युद्ध का परिणाम कुछ और ही होता. ये सब सोचते सोचते महाराणा को गश आ गया,उनके घाव अभी पूरी तरह से भरे नहीं थे. मन में आया तनाव पुरे शारीर में दुष्प्रभाव छोड़ सकता था. उधर मानसिंह ने अकबर को मुगलों के जीत का समाचार दे दिया. जब अकबर ने युद्ध से लौटे सैनिकों की समीक्षा की तो उसे ये भरोसा हो गया की वो केवल नाम का ही युद्ध जीता है महाराणा का आतंक उनके चेहरे में से साफ़ साफ़ नजर आ रहा था. उन्हें देख के लग रहा था की मुग़ल सैनिक शत्रु के बंदीगृह से लौटे है और वहां उन्हें खूब पीटा गया है. गुप्तचरों ने अकबर को सूचना दी की युद्ध में चौदह हज़ार सैनिको के मारे जाने के बावजूद राजपूतों में उत्साह भरा पड़ा है, उन्हें इस बात की बेहद ख़ुशी है की उनका महाराणा सही सलामत जीवित बच गया है.अकबर को पता था की अब राजपूत तोंपो का इस्तेमाल करेंगे जिनके कारण उन्हें भारी क्षति पहुंची है. इसलिए वह तुरंत ही अजमेर पहुंचा और अजमेर से मोहि पहुंचा. उसने मोही में गाजी खां को तैनात किया, उसके साथ शरीफ अटका मुजाहिद्दीन खां और शुभान अली तुर्क को छोड़ा तथा तीन हज़ार का लश्कर दिया. मोहि से अकबर गोगुदा पहुंचा वहां का दायित्व उसने राजा भगवानदास और कुत्तुब्बुद्दीन मोहम्मद खां को सौंपा. शाह फक्रुद्दीन तथा जगन्नाथ कछावा को उदयपुर में तैनात किया . इस प्रकार से अकबर ने स्वयं मेवाड़ क्षेत्र में पहुंचकर लगभग पुरे मेवाड़ को अपने कब्जे में ले लिया. कुछ जंगल और पहाड़ियां ही बचे थे जिनमे महाराणा छिपे थे. अब भी महाराणा का आतंक मुग़ल सेना में इतना था की उन पहाड़ों व् जंगलों को घेरकर, मुग़ल सेना राणा पर हमला करने को तैयार नहीं थी, जहाँ महाराणा छुपा था. मुग़ल सेना में ये डर था की कहीं अभी महाराणा गोरिल्ला युद्ध कर उन्हें गाजर मूली की तरह ना काट डाले. कुछ दिनों तक स्वयं अकबर अपने विशाल शाही फ़ौज के साथ मेवाड़ पर ही रहा. और उसके जाने के साथ ही महाराणा प्रताप ने प्रत्याक्रमण कर धीरे धीरे मेवाड़ का अधिकतर भो भाग को मुगलों से आजाद करवा लिया.

महाराणा प्रताप का संघर्षपूर्ण जीवन | Maharana Pratap history in hindi

Maharana Pratap history in hindi: अकबर लगभग पुरे मेवाड़ पर अपना अधिपत्य जमा चूका था. और राणा प्रताप के पास बहुत बड़ी चुनौती थी. पर राणा प्रताप ने इस चुनौतीपूर्ण कार्य को भी बड़ी ही सरलता के साथ पूरा करते गए, एक एक करके महाराणा प्रताप ने अपनी मातृभूमि को मुगलों के चंगुल से स्वतंत्र कराते गए. जब ये बात अकबर को पता लगी तो उसे जरा भी आश्चर्य नहीं हुआ क्योंकि हल्दीघाटी के इस विशाल युद्ध में जिस तरह से प्रताप और उनके वीरों ने अपना शोर्य दिखाया था उससे तो ये स्पष्ट ही था की मेवाड़ में मुग़ल सेना ज्यादा दिन तक टिक नहीं सकती है. अतः मेवाड़ को जीतने के स्थान में अकबर ने सदा राणा को पकड़ने के लिए दबदबा बनाये रखा. राणा के बहादुर साथी और भील सदा ही उनकी रक्षा अपने प्राणों पर खेल कर करते रहे. उन दिनों आगरे के किले में नौ रोज का मेला लगा करता था. उस मेले की विशेषता यह थी की उसमे केवल स्त्रियाँ ही भाग लेती थी. भारत के विभिन्न हिस्सों की विशेष चीजे इस मेले बिक्री के लिए आती थी. परन्तु बेचने और खरीदने वाले पुरुष नहीं होते थे, स्त्रियाँ ही इस मेले का सारा दायित्व संभालती थी. मुग़ल सम्राट अकबर ही एक मात्र ऐसा पुरुष था, जो इस मेले में घूमने के लिए स्वतंत्र था. इस समय तक अपनी आपसी फूट और कमजोरियों के कारण प्रायः सभी राजपूत राजा अपने छोटे छोटे राज्यों को मुग़ल सामराज्य के अधीन कर चुके थे और अकबर के प्रति दासता के भाव में उनमे हीनता उत्पन्न कर दी थी. प्रति वर्ष इस मेले में अनेक राजपूत स्त्रियों का मान हनन होता था. राजपूतों में अनेक बार इस मेले को लेकर चर्चा हो चुकी थी, परन्तु वे इस मेले को लेकर खुल कर आलोचनाएं नहीं कर पाते थे. इसे बंद कराने की इच्छा हर राजपूत को थी पर इसे बोलने का साहस कोई नहीं जुटा पता था. एक बार सम्राट अकबर ने दरबार के कवि महाराज पृथ्वीराज की पत्नी जोशाबाई के साथ मेले में अभद्र व्यवहार करने का प्रयत्न किया, वह सतिव्रता स्त्री ये सब सहन ना कर सकी और उसने पूरी घटना अपने पति को बताने के बाद रात में आत्महत्या कर ली. जोशीबाई की आत्महत्या का समाचार जंगल की आग की तरह सारे राज्पूतो में फ़ैल गया और देखते ही देखते राजपूत भड़क उठे. राजपूत के आक्रोश को समझकर अकबर चौकन्ना हो गया और उसने तुरंत ही मेले को सदा के लिए बंद करवा दिया. मेले के बंद होने से राजपूतों ने राहत की सांस ली,परन्तु सम्राट अकबर की कूटनीति, राजपूतों की शक्ति से राजपूतों को तबाह करने और मुग़ल साम्राज्य की नींव को मजबूत करने की योजना को वो पूरी तरह से समझ चुके थे. उनमे से अनेक ऐसे थे, जो मेवाड़ केसरी महाराणा प्रताप के विरुद्ध हल्दीघाटी का युद्ध लड़ चुके थे. अनेक ऐसे थे,जिन्होंने राजपूतों के एकमात्र आशा स्तम्भ महाराणा प्रताप को कमजोर करने में अकबर का साथ दिया था. जोशीबाई आत्महत्या काण्ड ने ऐसे राजाओं की आत्मा को झकझोर दिया था और वे अपने आप को अकबर को सहयोग देने और महाराणा प्रताप को हानि पहुँचाने के लिए दोषी माननें लगे थे. उधर महाराणा प्रताप हल्दीघाटी की युद्ध में अकबर की नींद को उदा देने के बाद बिठुर की जंगलों में जा छिपे थे. उनके परिवार को उनके पास सुरक्षित बुला लिया गया था. उनकी स्थिति बहुत ही दैन्य हो गयी थी, जंगलों में मुग़ल सैनिकों से बचते बचाते वे अनेक प्रकार का कष्ट झेल रहे थे. उन्हें सबसे ज्यादा कष्ट तब होता था जब उनकी जान बचाने के लिए कोई आगे बढ़कर अपनी जान दे देता था. हल्दीघाटी की युद्ध के बाद अकबर की नींद उड़ गयी थी . उसे डर था की समस्त राजपूताने के राजपूत के दिल में कहीं राणा प्रताप के लिए प्यार और इज्जत ना पैदा हो जाये. हल्दीघाटी का रण कौशल ने प्रताप का पद ऊँचा कर दिया था, उस समय की स्थिति ऐसी हो गयी थी की राजपूताना ही नहीं बल्कि समस्त भारतवर्ष में राणा प्रताप और उनके वीर चेतक की गाथा सुने जाने लगी थी, कवि राणा प्रताप की वीरता में कविता लिखने लगे थे, स्त्रियाँ राणा प्रताप की वीरता और शोर्य के गीत गाने लगी थी, देश का माहौल में अजीब सा बदलाव नजर आने लगा था, इस बदलाव में राणा प्रताप की तरह भारतवासी गुलामी की बेड़ियों से आजाद होकर स्वाधीन होने के सपने देखने लगे थे. बच्चे मेवाड़ के पराक्रम को बड़े ही ध्यान से सुनने लगे थे, जगह जगह नाट्य रूपांतरण के द्वारा महाराणा प्रताप की शूरवीरता को दर्शाया जाने लगा और अकबर को धोखे से छलने वाला, कपटी और धूर्त बताने लगे थे. असहाय और साधनहीन महाराणा अपनी तथा अपने परिवार की प्रतिष्ठा बचाने के लिए भीलों की मेहरबानी पर दिन काट रहा था और अकबर उसे जिन्दा या मुर्दा पकड़ने के लिए भीलों की टोली को जंगल जंगल भेज रहा था. मुग़ल सैनिक महाराणा के नाम से थर्राते थे. परन्तु अकबर के आदेश के आगे विवश थे. अनेक सैन्य टुकड़ियाँ विभिन्न जंगलों में राणा प्रताप की टोह में लगी थी. राणा प्रताप की सुरक्षा के लिए भील अपना सब कुछ दाँव पर लगा दिए थे. अनेक बार ऐसे अवसर भी आये की कई बार मुग़ल सैनिक टोह लेते लेते राणा प्रताप के बिलकुल ही पास आ पहुंचे और छापामार कर बस उन्हें पकड़ने ही वाले थे की सही वक़्त पर भीलों की टोलियाँ ने उन्हें आगे बढ़कर चुनौती दी. मुग़ल सैनिक के साथ मुठभेड़ में अनेक भीलों ने अपनी जाने गँवा दी और राणा प्रताप को अपने छिपने के स्थान से भाग जाने का अवसर प्रदान किया. भीलों की कुर्बानियों के कारण राणा प्रताप का मन बुरी तरह से दुखी हो गया. ऊपर से उनकी पत्नी तथा बच्चों के शारीर भूख का ताप सहते सहते सूख कर हड्डियों का ढांचा मात्र रह गए थे. मन के साथ साथ महाराणा का शरीर भी टूटने लगा था. उनकी समझ में नहीं आ रहा था की क्या करे. जंगलों में छिप कर रहने से उनकी बहरी दुनिया से संपर्क बिलकुल ही टूट गया था. उनके परिवार के अन्य सदस्यों का भार भीलों ने विभिन्न स्थानों में उठाया हुआ था. राणा तक यह समाचार बराबर पहुँच रहे थे की मेवाड़ की जनता अपने राणा पर गर्व करते है, वे अपने राणा पर अपना तन मन धन सब कुछ न्योछावर करने को तैयार है, किन्तु कंदराओं में छिप कर जनत अक सहयोग कैसे लिया जा सकता था. राजपूत जाति के बिखराव और पतन में कोई कमी नहीं रह गयी थी. स्वयं महाराणा प्रताप के भाई और भतीजे विरोधी खेमे में चले गए थे. अनेक राजपूत आकबर की अधीनता को स्वीकार कर चुके थे. इन्ही राजाओं की शक्ति के कारण अकबर ने राणा को चारों ओर से घेर रखा था. कई राजपूत राजाओं ने मेवाड़ के कई हिस्सों में अपना अधिकार जमा लिया था. लगभग पूरा मेवाड़ फिर से अकबर के अधीन हो चूका था. ऐसे में राणा प्रताप के सब्र का बाँध टूट गया. महाराणा की पत्नी ने किस तरह घास-पात एकत्रित की, उनसे कुछ रोटियां बनाई और कई दिनों से भूखे दोनों बच्चों के सामने रख दी. इतने में जंगल से एक बिलाव आया और बच्चों के आगे से रोटियां उठा के ले गया. अब किसी भी तरह से रोटियां नहीं बनाई जा सकती थी और बच्चे भूख से बिलख रहे थे. बच्चों को रोता देख पत्नी भी दुखी हो गयी.

पृथ्वीराज द्वारा महाराणा को प्रोत्साहित करना | Maharana Pratap history in hindi

अपने बच्चों को भूखा देखकर अब राणा प्रताप का धैर्य टूट गया था. उन्होंने सोचा की वो तो भूखा रह सकते है परन्तु अपने बच्चों को भूखा नहीं देख सकते है. इस विचार से उन्होंने तुरंत अकबर को एक संधि पत्र लिख डाला. और अपने अनुचर के हाथों अकबर के पास भेजवा दिया. अपनी पत्नी जोशाबाई की मृत्यु के पश्चात् पृथ्वीराज बहुत परेशान रहने लगा था. उसका मन होता था की किस तरह बस महाराणा प्रताप के पास पहुँच जाए और एक सच्चे राजपूत की तरह अकबर से बदला लिया जाए,परन्तु स्थितियां इतनी प्रतिकूल थी की राजपूतों को अकबर की दया पर जीना पद रहा था. राजपूतों का एकमात्र आशा दीप राणा प्रताप अकबर के प्रकोप से बचने के लिए जंगल जंगल भटक रहा था. ऐसे में अकबर से बदला लेना असंभव था और बदला लिए बगैर पृथ्वीराज का मन उसे चैन से सांस लेने नहीं दे रहा था. उसका मन अकबर से विद्रोह के लिए चीत्कार रहा था. मन के चीत्कार को दबाते हुए उसने शाही दरबार में प्रवेश किया. अकबर के सामने झुककर सलाम किया और आसन पर बैठ गया. उसने देखा की मुग़ल सम्राट आज कुछ ज्यादा ही खुश है. सब दरबारी जब अपने अपने आसन पर बैठ गए तो अकबर ने ये घोषणा की कि राणा प्रताप ने हमें संधि भेजा है. सारे दरबारी आश्चर्य से देखने लगे, दरबार में कौतुहल का माहौल बन गया, सब कहने लगे असंभव ये नहीं हो सकता….ये तो अनहोनी हो गयी. क्षण भर में ही अनेक प्रतिक्रियां दरबार भर में गूँज गया. अकबर को अपने कानो पर विश्वास करना मुस्किल हो रहा था, दरबार में ये पहली बार हुआ था की दरबार की मर्यादा को भूल सभी दरबारी बस अपनी प्रतिक्रिया देते चले गए. कूटनीतिज्ञ अकबर ने संक्षिप सी घोषणा करने के बाद एक एक करके सभी दरबारियों का चेहरा देखा. राजपूतों के चेहरे में आये भावों को पढ़कर अकबर दहल गया.अधिकांश राजपूत के चेहरे टन गए, कुछ राजपूत उदास हो गए और उनमें से कुछ झूठी प्रसन्नता के भाव व्यक्त करने लगे, जाहिर सी बात है की यह समाचार सुनकर उन्हें ख़ुशी नहीं हुई थी. संधि पत्र की बात सुनकर पृथ्वीराज घम्भीर हो गए थे, राजा पृथ्वीराज के सीने में एक हुक सी उठी जिसे दबाने के लिए वे पूरी शक्ति से प्रयास कर रहे थे. उसी समय अकबर ने राजा पृथ्वीराज को टोक दिया आपका क्या मत है राजा साहब? पृथ्वीराज अपने आसन से उठे और बोले असंभव जहाँपनाह……मुझे तो लगता है संधि पत्र जाली है..महाराणा प्रताप संधि पत्र लिख नहीं सकते है. क्यों राणा भी आखिर एक इंसान है इतने दिनों तक कष्ट सहते सहते तंग आ गए होंगे. उनके पास मुग़ल सल्तनत से टकराने के लिए बचा ही क्या है. अकबर ने य्दयापी सच बात बोली थी,परन्तु ये बात राजपूतों को अच्छी नहीं लगी. पृथ्वीराज तो अकबर की बात से बौखला गए और बोले –महाराणा प्रताप कोई साधारण इंसान नहीं है…वे सिर झुकाने की बजाये सिर कटाने में विश्वास रखते है. अकबर मुस्कुराया और कहा आपकी बात में दम है राज साहब..हम सब लोग आपसे इत्तेफाक रखते है परन्तु एक बात तो आप मानेगें ना की मुग़ल सल्तनत से हाथ मिलाने का अर्थ सिर झुकाना नहीं बल्कि सिर उठा कर साथ साथ चलना है, ये हम सब का ही तो सल्तनत है. राजा पृथ्वीराज का पारा चढ़ा हुआ था वो चुप नहीं रह सके उन्होंने कहा की – प्रताप एक अलग किस्म के इंसान है मुझे नहीं लगता है की ये संधि पत्र उनका है अगर आपकी इजाजत हो तो मैं स्वयं इसकी तहकीकात करना चाहूँगा. “इजाजत है“- आप अपने स्तर से तहकीकात कीजिये और सच्चाई जानकर हमें ज्ञान दीजिये. इतना कहकर अकबर उठ गया. जो कुछ भी दरबार में हुआ उससे उसका मन खिन्न हो गया. परन्तु वो इतना घम्भीर व्यक्ति था की अपनी मन की खिन्नता किसी के सामने जाहिर नहीं होने दी. राजा पृथ्वीराज सीधे घर पहुंचा और उन्होंने महाराणा प्रताप को कवि की मार्मिक छंदबद्ध लम्बा पत्र लिखा और महाराणा के पास भिजवा दिया. उन दिनों महाराणा प्रताप के भाई शक्तिसिंह मुगलों के गिरफ्त से भागकर राजपूत बहुल क्षेत्रों में चले गए थे और अकबर के अधीन राजपूत क्षेत्रों में घूम घूम कर महाराणा प्रताप के नाम से सेना का गठन कर रहे थे. ऐसा जादू था महाराणा के नाम में की जो सुनता वह उनके लिए आगे बढ़कर सहयोग देने को तैयार हो जाता. गांव गांव घूम कर शक्तिसिंह ने प्रताप के नाम से सेना का संगठन किया. मुगलों के अधीन किन सहारा का दुर्ग जीत लिया. यद्यपि शक्तिसिंह को अनेक राजपूत बुजुर्गों की नाराजगी झेलनी पड़ी. शक्तिसिंह की करतूत के बारे मैं जिन्हें पता था वो पहली मुलाकात में ही शक्तिसिंह से बिगड़ जाता था परन्तु जब शक्तिसिंह अपने पश्चाताप की बातें बताता तब उन्हें विश्वास हो जाता था की जो उनके सामने खड़ा है वो महाराणा प्रताप का विरोधी नहीं बल्कि महाराणा प्रताप के लिए शक्ति अर्जित करने वाला शेर दिल राजपूत है. उनकी सेना में सम्मिलित होने के लिए युवक और अधेड़ उम्र के व्यक्ति पुरे जोश और लगन के साथ आने लगे थे. शक्तिसिंह की केवल एक ही इच्छा थी की वे एक बड़ी सेना का गठन कर, अपने भाई राणा प्रताप से मिले और उनसे उस सेना का नेतृत्व करा कर मुगलों से टक्कर लेने का निवेदन करें, परन्तु एक दिन शक्तिसिंह के कानो तक राणा प्रताप की संधि की बात पहुंची शक्तिसिंह को अपने कानो में विश्वास नहीं हुआ वे बिलकुल भी नहीं चाहते थे की महाराणा अकबर के सामने झुके. वे तुरंत बिठुर के जंगलों की ओर चल दिए और पता लगाते लगाते राणा प्रताप के पास जा पहुंचे. राणा प्रताप के पास उस समय अनेक सरदार मिलने को आये हुए थे सभी उनसे यही निवेदन कर रहे थे की मुगलों से संधि कर वो अपने आप को छोटा ना करें. राणा के लिए वे कुछ भी करने को तैयार थे. ऐसे समय में शक्तिसिंह ने क्षमायाचना के बाद अपने दुर्ग और अपने सेना का पूरा विवरण प्रताप सिंह को दिया और उनसे निवेदन करने लगे की वे इरादा बदल दे, अन्यथा राजपूतों का सूरज सदा के लिए डूब जायेगा. राणा प्रताप भी पुरे मन से संधि के लिए तैयार नहीं थे, परन्तु युद्ध के लिए जितनी तैयारी की आवश्यकता थी, वह सब जुटा पाना असंभव सा लग रहा था. बिना धन के इतनी बड़ी सेना का संगठन कैसे संभव था की मुग़ल सेना से टक्कर ली जा सके. उसी समय महाराणा को पृथ्वीराज का पत्र मिला. महाराणा ने बड़ी ही गंभीर मुद्रा में उस पत्र को पढ़ा- उस पत्र का आशय था यदि आप अकबर की अधीनता को स्वीकार कर लेंगे तो संसार से वीरता का इतिहास मिट जायेगा. सूर्य पश्चिम में उदय होने लगेगा और पूर्व दिशा में अस्त होने लगेगा. सब कुछ उलट पलट हो जायेगा. जिन राजपूतों ने अकबर के सामने घुटने टेक दिए है, सच्चाई तो ये है की वे राजपुत भी नहीं चाहते की प्रताप सिंह अकबर के सामने घुटने टेके. अंत में पृथ्वीराज ने लिखा की – अंत में मुझे ये बताये की मैं अपनी मुछे ऊँची रखु या कटवा डालूं, और राजपूतों की विवशता पर अपना माथा ठोक लूँ? पत्र पढ़ते पढ़ते महाराणा का मुख लाल हो गया. उनकी बाँहें फड़कने लगी उनके मस्तक में एक नई सी चमक आ गयी. वे खड़े हो उठे और कहने लगे नहीं नहीं मैं कभी नहीं झुकूँगा, प्रताप सिंह को ये कहते सुन सबके चेहरे में फिर से चमक आ गयी. उसके बाद प्रताप अपने सभी साथियों के साथ एक नई सेना के गठन के मुद्दे पर विचार विमर्श करने में जुट गए. विचार विमर्श करने के बाद सभी लोग इस निष्कर्ष पर पहुंचे की नई सेना के गठन के लिए मेवाड़ के पास धन का आभाव है. ये एक बहुत बड़ी समस्या था की आखिर धन कहाँ से जुटाया जाए. धन के आभाव में ही राणा प्रताप के सेना के कई सैनिक उनको छोड़ चुके थे.

भामाशाह का योगदान और महाराणा का विजय अभियान | Maharana Pratap history in hindi

Maharana Pratap history in hindi: भामाशाह चितौड़ के बड़े धनपति थे. उनके पास अपार धन सम्पदा थी, मुगलों के आक्रमण के बाद उन्होंने चितौडगढ़ का त्याग कर दिया था. कई वर्षों तक उन्होंने मुगलों से अपनी धन संपत्ति को छुपाये रखा. वे कई दिनों से राणा प्रताप की तलाश में थे क्योंकि उन्हें पता था की राणा को युद्ध के लिए धन की आवश्यकता है. उनकी हार्दिक इच्छा थी की महाराणा उनका धन ले ले और एक मजबूत सेना का गठन कर मुगलों से अपनी मातृभूमि को स्वतंत्र कराएँ. जब भामाशाह को राणा प्रताप का पता चला तो वो तुरंत अपना सब कुछ लेकर राणा प्रताप के पास जा पहुंचे, उन्होंने आग्रह किया की ये धन वो ले ले और एक सेना का संगठन कर मुगलों को मुंह तोड़ जवाब दे. भामाशाह का निवेदन को महाराणा प्रताप ने अति संकोच के साथ स्वीकार किया. यह राशी इतनी बड़ी थी की इससे 5000 हजार सैनिकों को 12 वर्षों तक वेतन दिया जा सकता था. इतनी बड़ी राशी का योगदान देकर भामाशाह इतिहास में अपना नाम अमर करवा गए. महाराणा प्रताप ने भी उनकी अपने मातृभूमि के लिए योगदान देने पर बहुत प्रसंशा किये. सबने भामाशाह का कृतज्ञता व्यक्त की सबके चेहरे प्रसन्नता से खिल उठे . शक्तिसिंह के हृदय में युद्धोन्माद लहरे लेने लगा. भामाशाह से धन लेने के बाद राणा प्रताप ने अपने सेना को संगठित किया. अनेक राजपूत राजाओं ने आगे बढ़कर राणा प्रताप का सहयोग दिया. शक्तिसिंह ने भी अपने द्वारा संगठित सैन्य शक्ति राणा प्रताप को दे दी. और अब वह राणा का वफादार सैनिक बन गया. राजा पृथ्वीराज ने अकबर से प्रतिशोद लेने के लिए अकबर का साथ छोड़ दिया और वे राणा प्रताप से आकर मिल गए. राणा प्रताप ने हमले कर मुगलों को कुमलमेर से खदेड़ दिया. पुरे कुमलमेर क्षेत्र में फिर से महाराणा ने कब्ज़ा कर लिया. मुग़ल सेना पहले ही राणा प्रताप के गुरिल्ले युद्ध से आतंकित थी. जहाँ जहाँ महाराणा ने दबाव बनाया वहां वहां मुग़ल सेना पीछे हटते चली गयी. किनसहारा का किला अभी भी शक्तिसिंह के कब्जे में था. अकबर ने राजा मानसिंह को आदेश दे दिया की किनसहारा का किला को शक्तिसिंह से छीन लिया जाए.मानसिंह ने महाबत खान को बुलाकर उसे 10 हजार सैनिक दिए और शक्तिसिंह पर आक्रमण करने को कहा. महाबत खान ने किनसहारा किला पहुँच कर शक्तिसिंह को चुनौती दी उस समय शक्तिसिंह केवल 1 हज़ार सैनिको के साथ किले की रक्षा कर रहा था. महाबत खान ने किले की घेराबंदी कर दी और आशा कर रहा था की रसद खत्म होने पर शक्तिसिंह अपनी सेना लेकर किले से बाहर निकलेगा, तब उसे मार गिराया जायेगा. परन्तु शक्ति सिंह ने हार नहीं मानी. शक्तिसिंह ने तुरंत ही महाराणा प्रताप के पास खबर भिजवा दी. महाबत खान ने दुर्ग के पूर्व की दिवार तोड़ डाली और उसकी सेना किले में घुसने की तयारी करने लगी. शक्तिसिंह ने मुकाबला करते हुए मरने का फैसला कर लिया था. परन्तु ठीक उसी समय महाराणा प्रताप की जयजयकार शक्तिसिंह के कानो तक पहुंची, शक्तिसिंह बिना समय गंवाए आक्रमण का आदेश दे दिया. उसी समय प्रताप की सेना भी पिछे से पहुँच गई. दोनों सेनाओं ने मिल कर महाबत खान की सेना को घेर लिया. मुग़ल सेना दो पाटों के बीच फंस गयी. महबत खान को कैद हो गई. जब उसे महाराणा के सामने लाया गया तो उन्होंने महबत खान को छोड़ दिया. इस प्रकार से किनसहारा का किला बच गया. इस युद्ध में मुगलों के 10 हजार सैनिकों में से 8 हजार सैनिक मारे गए. राणा के विपुल युद्ध सामग्री हाथ लगी . राणा प्रताप ने अपनी बहादुरी और जन सहयोग से अकबर द्वारा जीता गया लगभग सारा क्षेत्र फिर से जीत लिया. अपनी सेना को आधूनिक साज सामग्री से युक्तकर, महाराणा ने कुम्भलगढ़ को अपना केंद्र बना लिया. अकबर ने अक्टूबर 15, 1577 को शाहबाज खां के नेतृत्त्व में एक विशाल सेना कुम्भाल्गढ़ में आक्रमण के लिए भेजा. ऐसा माना जाता है की राजा मानसिंह और भाग्वान्तदास को इस युद्ध से दूर रखा गया था क्योंकि उनके मन में राणा प्रताप के लिए सहानुभूति थी. राजपूत के सिरमौर प्रताप को अधिक सताए जाने के कारन ये राजपूत अकबर के विरुद्ध होने लगे थे, परन्तु अकबर की आँखों में प्रताप चुभ रहे थे. अकबर का पक्का विश्वास था की प्रताप के रहते मुग़ल सल्तनत सुरक्षित नहीं था. प्रताप के नेतृत्व में वह जादू है की राजपूत कभी भी उसके पिछे खड़े हो सकते है. अतः वह बड़ी ही सावधानी से प्रताप को कमजोर करने में लगा था. कुम्भलगढ़ के युद्ध में प्रताप ने तोंपो का भी इस्तेमाल किया था. ऐसा उल्लेख मिलता है की शाहबाज खां हर कोशिश करके हार गया परन्तु प्रताप के तोंपो का जवाब नहीं दे पाया. हर संभव प्रयास के बाद भी वह किले पर कब्जा नहीं कर पाया. अंत में उसने एक चाल चली उसने प्रताप के तोंपो के बारूद में शक्कर मिला दी जिससे की तोंपो के टुकड़े टुकड़े हो गए. और मुग़ल सेन प्रताप के सेना में हावी हो गयी. एक बार फिर प्रताप को करारी हार का मुंह देखना पड़ा. राणा प्रताप किला छोड़ कर,परशुराम महादेव के मार्ग से रणकपुर चले गए और वहां से चावंड जा पहुंचे. प्रताप के सुरक्षित पहुँचने तक राजपूतों ने किला का दरवाजा नहीं खोला और फिर फाटक खोल दिया. फाटक के खुलते ही मुग़ल सेना किले में प्रवेश कर गयी..बचे हुए राजपूत मुग़ल से भीड़ गए..एक एक राजपूत कई कई मुगलों को मारकर वीरगति को प्राप्त किया. अप्रैल 1578 को कुम्भलगढ़ का दुर्ग शाहबाज खां ने जीत लिया. किला जीतकर शाहबाज खां ने उसे गाजी खां को दे दिया और स्वयं उसने कई मोर्चे बनाकर उदयपुर, गुगुन्दा, चावंड आदि के क्षेत्र को जीते. शाहबाज खां ने लगभग पूरा मेवाड़ को राणा प्रताप से फिर से छीन लिया और राणा को अपने महत्वपूर्ण पहाड़ियों के क्षेत्र से पीछे हटना पड़ा. मेवाड़ विजय के बाद मई 1578 में शाहबाज खां वापस चला गया. शाहबाज खां के लौटते ही राणा प्रताप ने तुरंत हमले आरंभ कर दिए और कुंभलगढ़ को छोड़ कर सारा क्षेत्र फिर फिर से मुगलों से छीन लिया. 11 नवम्बर, 1579 को शाहबाज खां ने फिर से मेवाड़ पर चढ़ाई की, परन्तु इस बार उसका उद्देश्य केवल महाराणा प्रताप को कैद करना था. उसने अपनी पूरी फ़ौज महाराणा के पीछे लगा दी. महाराणा ने बड़ी ही चतुराई से अपना बचाव किया. जन-सहयोग के कारण शाहबाज खां राणा प्रताप को बंदी नहीं बना पाया. कभी भील उनकी सुरक्षा में अपनी जान अड़ा देते थे तो कभी राणा के चाहने वाले उनके सुरक्षा में मदद करते थे. मुग़ल सेना ने हर पहाड़ी का चप्पा चप्पा छापा मारा परन्तु राणा और उसके परिवार तक पहुँच ना सकी. अंत में निराश होकर उसने वापस लौटने का निश्चय कर लिया. मई 1580 को अकबर ने शाहबाज खां को वापस बुला लिया. बाद में शाहबाज खां से अकबर ने अजमेर की सूबेदारी वापस ले ली और अब्दुर्रहीम खानखाना को अजमेर का सूबेदार बना दिया. अब मेवाड़ में सैनिक करवाई का दायित्व खानखाना पर आ गया. अब महाराणा प्रताप फिर सक्रीय हो गए. उन्होंने अनेक हमले कर कुंभलगढ़ सहित सम्पूर्ण पश्चिमी मेवाड़ पर कब्ज़ा कर लिया. 5 दिसम्बर 1584 को एक बार फिर जगन्नाथ कछावा ने राणा प्रताप को घेरा. इस बार का उद्देश्य राणा प्रताप को गिरफ्तार करना था, उसने पुरे पर्वतिये क्षेत्र में महाराणा का पीछा किया, परन्तु गिरफ्तार करने में असमर्थ रहा. इस प्रकार हल्दीघाटी के प्रसिद्ध युद्ध के बाद अकबर ने अनेक आक्रमण किये अनेक चाले चली परन्तु वह महाराणा के लिए परेशानी पैदा करने के अलावा और कुछ भी नहीं कर सका. न अकबर चैन से बैठा और ना ही उसने महाराणा को चैन की सांसे लेने दी परन्तु उसने अपनी सारी ताकते झोंक कर भी महाराणा को अंतिम रूप से झुका ना पाया. अनेक संघर्षो और युद्धों के बाद बार बार मेवाड़ राज्य कई बार मुगलों के हाथों चला गया पर अंततः महाराणा ने मंडलगढ़ और चित्तौड़गढ़ को छोड़कर पुरे मेवाड़ में अपना अधिपत्य स्थापित कर ही लिया.

अकबर द्वारा युद्ध विराम की घोषणा | Maharana Pratap history in hindi

Maharana Pratap history in hindi: अब प्रताप ने उदयपुर से 57 मील की दुरी पर स्थित चावंड में अपनी राजधानी स्थापित कर ली.1583 के बाद महाराणा का केंद्र स्थल चावंड नगर बन गया. अकबर जब सारे प्रयत्न कर के हार गया और उसे राणा प्रताप को काबू में करने का कोई रास्ता नजर नहीं आया तो वह बुरी तरह से बौखला गया. उसने मानसिंह को एकांत में बुलाया और स्थिति की गंभीरता पर विचार किया. मानसिंह ने अकबर को सूचित किया की राजपूत महाराणा पर बार बार आक्रमण करने की निति से प्रसन्न नहीं है. महाराणा ने बेमिसाल बहादुरी का परिचय देकर मुग़ल शक्ति को हर बार नाकामयाब कर दिया है. ऐसे बहादुर व्यक्ति की तबाही से राजपूत क्षुब्ध है. स्वयं मानसिंह ने राणा प्रताप पर और अधिक आक्रमण ना करने की निति से सहमती जताई. अकबर समझ गया था की यदि राणा पर और अधिक हमले किये गए तो राजपूत बगावत पर उतर जायेंगे और जिस मंतव्य से राणा शेर की तरह डटा हुआ युद्धों की विभीषिका को झेलता रहा है उसमे वह कामयाब हो जायेगा. एक बार राजपूत उसके हाथ से निकल राणा प्रताप के साथ हो गए, तब सम्पूर्ण मुग़ल सल्तनत ही खतरे में पड़ सकता है. अगले ही दिन उसने एक महत्वपूर्ण घोषणाएं कर डाली, घोषणा यह थी की महाराणा प्रताप से मुग़ल सम्राट की अब कोई दुश्मनी नहीं है, जब तक प्रताप जीवित है उनपर मुगलों की ओर से कोई और हमला नहीं किया जायेगा. अकबर ने सभी राजपूत से अपने गलतियों के लिए क्षमा याचना की, राजपूतों को और क्या चाहिए था, मुग़ल सम्राट अकबर उनसे क्षमा मांग रहा है इससे प्रतिष्ठा वाली बात और क्या हो सकती है. मुग़ल साम्राज्य से कटकर महाराणा के पीछे एक जुट होने का जो संकल्प उनके मन में जागा था,वो एक कच्चे घड़े की तरह टूट गया था. महाराणा प्रताप को जब ये पता लगा की अकबर उनसे संघर्ष का रास्ता छोड़ दिया है तो उन्हें बड़ी निराशा हुई. वे उस मिटटी के बने राजपूत थे, जो शत्रु द्वारा उदारता दिखाए जाने पर कभी प्रसन्न नहीं होते थे. फिर अकबर से उनकी शत्रुता तो कई पीढियां पुरानी थी. मुगलों से संघर्ष करना उनकी जीवन शैली में शामिल हो गया था. सम्पूर्ण युद्ध विराम के समाचार से उन्हें ऐसा लगा की जैसे सारे काम एकाएक रुक गए हो. वास्तविकता तो ये थी की 25 वर्षो से निरंतर युद्ध करते करते उनका शारीर जर्जर हो चूका था उन्हें आराम की सख्त जरुरत थी. परन्तु राणा प्रताप ने अपने सुख चैन और आराम को कभी भी महत्त्व नहीं दिया. उनकी एकमात्र चिंता बस यही थी की देश के राजपूतों में एक ऐसा जूनून पैदा हो की वे एक होना सीखे और बहरी ताकतों के हाथों में न खेलकर अपनी ताकतों को पहचाने और अपने देश में अपने संयुक्त साम्राज्य की स्थापना के लिए कुछ करें. राणा बीमार पड़ गए उनके मन में एक ही चिंता घर कर गयी थी की उनके बाद मातृभूमि के लिए लड़ने वाले राजपूतों की परम्परा समाप्त हो जाएगी. मेवाड़ का भविष्य भी उनको उज्जवल नहीं दिख रहा था. उन्हें भय था की उनके बाद अमर सिंह मुगलों का दयित्व स्वीकार कर लेगा. जिस प्रतिष्ठा के लिए वे आजीवन हर तरह के कष्ट सहते हुए शत्रुओं से जूझते रहे, उनकी मृत्यु के बाद वह धुल में मिल जाएगी. राणा प्रताप से मिलने प्रतिदिन अनेक लोग आते थे. राणा बीमार है और मृत्यु की शय्या पर है ऐसी खबर दूर दूर तक फ़ैल गयी थी. अनेक राजपूत राजा उनका हाल चाल जानने और उनके दर्शन के लिए आने लगे थे. राजपूत ही नहीं अनेक बहादुर मुसलमान और मुस्लिम सरदार भी राणा के दर्शन करने में अपना अहोभाग्य समझते थे. अब तो अंतिम दिन निकट आ पहुंचा था. महाराणा की दशा बिगड़ गयी थी. उन्होंने अपने विश्वस्त साथियों गोविन्दसिंह,पृथ्वीराज, शक्तिसिंह अमरसिंह आदि को बुलाया और कहने लगे-“अब मुझे केवल एक बात बताओ मेरे बाद इस मातृभूमि की लड़ाई कौन लडेगा आप सब थक चुके है और अमरसिंह इस काबिल नहीं लगता है. “आप शांत रहिये भैया” शक्तिसिंह ने आगे बढ़कर कहा-“जब तक हम चितौड़ का किला जीत नहीं लेते है, मुगलों से कोई समझौता नहीं करेंगे. हम मुगलों के आगे कभी नहीं झुकेंगे, आपके द्वारा स्थापित वीरता की परंपरा को धक्का नहीं लगने देंगे, चाहे हमारे प्राण ही क्यों ना चले जाए.” बाबा रावत को साक्षी मानकर सभी राजपूतों ने प्रतिज्ञा की. राणा आश्वस्त हो गए और बोले-“मुझे आप लोगो पर पूरा भरोसा है अब मैं चैन से मर सकूँगा”.कहते हुए महाराणा ने शून्य में देखा और फिर गर्दन झुकाकर कहने लगे –“मेरा अंत समय निकट आ गया है. प्राण के निकलते समय मैं चित्तौडगढ के दर्शन करना चाहूँगा आप सब मुझे ऐसी जगह लिटा दीजिये जहाँ से मैं चितौड़गढ़ का किला स्पष्ट रूप से देख सकूँ. चितौड़गढ़ का किला जब राणा जी को दिखने लगा तो वो उठ बैठे और बोले –“हे मुग़ल पददलित चितौडगढ़ मैं तुझे अपने जीवन में प्राप्त ना कर सका. अकबर ने उसपर अन्याय से कब्ज़ा कर रखा है, मैं तुझे जीते बिना ही जा रहा हूँ, परन्तु विश्वास रख मेवाड़ की युवा पीढ़ी तुझे शीघ्र ही मुक्त करा लेगी. मैंने प्राण पण से तेरे उद्धार की कोशिश की थी मगर……”कहते कहते महाराणा का गला रुंध गया, दृष्टी किले के बुर्ज पर ही ठहर गयी थी. तभी वैद्य ने उनकी नाड़ी देखी और बोले- “महाराणा की इहलीला समाप्त हो गयी”. यह शब्द सुनते ही अमरसिंह, गोविन्दसिंह, शक्तिसिंह आदि राणा के गले से लिपटकर फूट फूट कर रोने लगे. मेवाड़ के जाज्वल्यमान सूर्य का अन्त हो गया. पूरा मेवाड़ शोक में डूब गया. समाप्तः

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