समुद्र के मंथन का समय | Samudr ke Manthan Ka Samay

समुद्र के मंथन का समय | Samudr ke Manthan Ka Samay : एक बार दुर्वासा ऋषि ने देवताओं पर क्रोधित होकर उन्हें श्राप दे दिया. उस श्राप के प्रभाव से सभी देवगण अपना दिव्य रूप और शक्ति खो बैठे.
जिसके फलस्वरूप असुर व दैत्य उन्हें परेशान करने लगे। जिसकी वजह से सभी देवता अपने आपको शक्तिहीन महसूस करने लगे। थक हारकर सभी देवता, भगवान् इन्द्र के पास गए और उन्हें अपनी सारी समस्या विस्तार से बताई। इन्द्रदेव ने उन्हें भगवान् विष्णु के पास जाने का परामर्श दिया। सभी देवता इन्द्रदेव के साथ भगवान् विष्णु के पास गए। इन्द्रदेव भगवान् विष्णु से बोले, “हमें इस समस्या का कोई हल बताइए। यदि ऐसा ही रहा, तो शीघ्र ही सभी देवता अपना अस्तित्व खो बैठेंगे।”

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समुद्र के मंथन का समय | Samudr ke Manthan Ka Samay : भगवान विष्णु उनकी बातें बड़े ध्यान से सुनते रहे। सारी बात सुनकर तथा उस समस्या का हल गहराई से सोचने के पश्चात् भगवान् विष्णु, इन्द्रदेव से बोले, “तुम सभी अर्थात् असुरों, दैत्यों तथा देवताओं को समुद्र का मंथन करना होगा, उससे जो हीरे जवाहरात मिलेंगे, उनसे तुम्हें तुम्हारी शक्ति व रूप पुन: प्राप्त हो जायेंगे। इसके लिए तुम्हें दैत्यराज बालि के पास जाना होगा। वह तुम्हारे भाई हैं क्योंकि तुम सभी के पिता कश्यप हैं। वह तुम्हारी अवश्य सहायता करेंगे।” भगवान् विष्णु के आदेश का पालन करते हुए इन्द्रदेव दैत्यों के राजा बालि से मिलने गए। दैत्यराज बालि ने समुद्र मंथन में इन्द्र को पूरी-पूरी सहायता करने का वचन दिया। भगवान इंद्र ने कहा कि समुद्र मंथन के पश्चात् उन लोगों को जो कुछ भी प्राप्त होगा, उसका बराबर का हिस्सा दैत्यराज को दिया जायेगा।

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समुद्र के मंथन का समय | Samudr ke Manthan Ka Samay : दैत्यराज व देवताओं के प्रतिनिधि व्यक्तियों की मंत्रणा हुई जिसमें यह ‘ निश्चित हुआ कि समुद्र से उपहार बाहर निकालने के लिए मन्द्राचल पर्वत का प्रयोग मथनी के रूप में किया जायेगा। और नागराज वासुकी का उपयोग मंथन के लिये रस्सी के रूप में किया जाएगा। इसके पश्चात् कुछ देवता, असुर व दैत्य मन्द्राचल पर्वत को उठाने के लिए वहाँ पर एकत्रित हुए, परन्तु उनमें से अनेक की पर्वत के उनके ऊपर गिरने से मृत्यु हो गई और वह पर्वत को नहीं ले जा सके। अत: इन्द्रदेव ने भगवान् विष्णु से सहायता माँगी। भगवान् विष्णुं अपनी सवारी गरुड़ पर सवार हुए और पूरे पर्वत को उन्होंने एक हाथ से उठा लिया। और उसे समुद्र के मध्य स्थापित कर दिया। परन्तु पर्वत तो भारी था, सो तुरंत समुद्र में डूबना आरम्भ हो गया। भगवान् विष्णु ने यह सब देखा, तो उन्होंने एक विशाल कछुए का रूप धारण किया और पर्वत को अपनी पीठ पर धारण कर समुद्र के नीचे चले गए.

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समुद्र के मंथन का समय | Samudr ke Manthan Ka Samay : थोड़ी ही देर में नागराज वासुकी मंद्राचल पर्वत पर लिपट गए और मंथन आरम्भ हो गया. असुरो और दैत्यों ने वासुकी को उसके सिर से तथा देवताओं ने उसे पूंछ की तरफ से पकड़ा। मंथन के समय जो वस्तु सर्वप्रथम निकली, वह ‘हलाहल’ अर्थात् विष था। देवता, दैत्य और असुर, कोई भी उसे लेना नहीं चाहता था। तब भगवान् शिव आगे आये और उन्होंने सारा विष पी लिया। और काली माँ ने आ कर ‘हलाहल’ को उनके गले के बीच में रोक लिया, जिसके कारणवश उनका गला नीला हो गया। तभी से उनका नाम “नीलकण्ठ’ पड़ गया। तत्पश्चात् कामधेनु नामक दिव्य गाय निकली, जिसे भगवान् विष्णु ने साधुओं को दान दे दिया। जो तीसरा उपहार निकला वह एक घोड़ा था। उसका नाम उच्चाश्रवा रखा गया। दैत्य राज बालि ने उसे अपने लिए रख लिया। चौथा उपहार ‘ऐरावत’ हाथी निकला।

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समुद्र के मंथन का समय | Samudr ke Manthan Ka Samay : इन्द्रदेव ने जिसे अपने लिए रख लिया। पाँचवा उपहार कोस्तुभमनि निकला, उसे भगवान् विष्णु ने मंथन में सहायता कराने के एवज में अपने पास रख लिया। अगली बार मंथन करने पर परिजात नाम का वृक्ष निकला और उसे समुद्र के किनारे ही रख दिया गया, बाद में देवता उसे स्वर्ग ले गए। सातवाँ उपहार एक सुन्दर अप्सरा थी, जिसका नाम रम्भा था। वह अप्सरा स्वयं कभी धरती पर तथा कभी स्वर्ग में रहना चाहती थी। तत्पश्चात्, मंथन में धन की देवी लक्ष्मी जी निकलीं। देवताओं एवं असुरों के मध्य उन्हें लेकर विवाद उत्पन्न हो गया।

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भगवान् विष्णु लक्ष्मी जी से बोले कि वह स्वयं अपनी इच्छानुसार किसी के भी साथ जा सकती हैं। लक्ष्मी जी ने भगवान् विष्णु की पत्नी बनकर उनके साथ रहना स्वीकार किया। इसके पश्चात् वरूनि नाम की मदिरा, मंथन द्वारा बाहर निकली। दैत्य और असुरों ने इसे प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार कर लिया।
अंत में वैद्य धन्वन्तरी अमृत से भरा हुआ पात्र लेकर बाहर निकले। उस अमृत में इतनी क्षमता थी कि वह किसी को भी अमर कर सकता था। कौन कितना अमृत पिएगा और किसको कम और किसको ज्यादा अमृत मिलेगा में बहस सी आरम्भ हो गई। इस बहस का फायदा उठाकर एक दैत्य ने वैद्य धनवन्तरी के हाथों से अमृत से भरा पात्र छीना और भागने लगा।

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समुद्र के मंथन का समय | Samudr ke Manthan Ka Samay : स्थिति को हाथ से बाहर निकलता देखकर भगवान् विष्णु ने सुन्दर अप्सरा मोहिनी का रूप धारण कर लिया।
हर कोई उस अप्सरा के सौन्दर्य पर मंत्रमुग्ध सा महसूस कर रहा था। तब मोहिनी अपनी मधुर वाणी में बोली, “लड़ो नहीं, यह पात्र मुझे दे दो। मैं सभी को एक-एक घूट अमृत का दे दूँगी। सभी एक पंक्ति में खड़े होकर अपनी बारी की प्रतीक्षा करो। ” “पात्र में अमृत का ऊपर का भाग पतला तथा नीचे का भाग गाढ़ा है, इसलिए दैत्य और असुरों को अपना हिस्सा नीचे से मिलेगा और देवताओं को पतला वाला अमृत पहले दिया जाएगा।” मोहिनी की इस बात को सुर व दैत्य, दोनों मान गए।

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मोहिनी ने देवताओं को अमृत पिलाना आरम्भ किया। राहू नाम का एक दैत्य मोहिनी की चाल समझ गया, उसने देवताओं का रूप बदल लिया और सूर्यदेव व चन्द्रदेव के बीच पंक्ति में सबसे अंत में जाकर बैठ गया। उन्होंने मोहिनी से उसे अमृत न देने को कहा, परन्तु तब तक बहुत देर हो चुकी थी। राहू अपने – हिस्से का अमृत का घूंट पी चुका था। तब भगवान् विष्णु अपना रूप बदलकर वास्तविक रूप में आ गए। उन्होंने बचा हुआ अमृत चन्द्र देव को
दिया तथा अमृत का पात्र जमीन पर फेंक दिया। अपना जीवन बचाने के लिए राहू वहाँ से भागा। परन्तु भगवान् विष्णु के सिर उसके धड़ से अलग कर दिया। परन्तु चूंकि राहू अमृतपान कर चूका था इसीलिए वो मरा नहीं.
चंद्रदेव ने जब यह सब देखा तो उन्होंने भगवान् विष्णु से कहा, “भगवान्! इसके शरीर के और टुकड़े मत कीजिए। यदि ये भूमि पर गिर गये, तो प्रत्येक टुकड़ा एक नये दैत्य का रूप धारण कर लेगा और देवताओं को परेशान करेगा।”

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समुद्र के मंथन का समय | Samudr ke Manthan Ka Samay : भगवान विष्णु ने चंद्रदेव की प्रार्थना सुनी और राहू से बोले, “तुमने देवताओं के बीच बैठकर अमृतपान किया है। इसलिए अब तुम्हें असुरों के जीवन का त्याग करना पडेगा और सूर्य, चन्द्रमा तथा अन्य सात ग्रहों के साथ रहना पडेगा और इस प्रकार आज से यह सात ग्रह, नव ग्रह कहलायेंगे।” यही कारण है कि सात ग्रहों को नवग्रह कहा जाता है। और आज तक दैत्य के सिर को राहू तथा उसके शरीर के बाकी भाग को केतु कहा जाता है

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