शत्रु को मित्र बनाने की कला | Shatru Ko Mitr Bnane Ki Klaa

शत्रु को मित्र बनाने की कला | Shatru Ko Mitr Bnane Ki Klaa

शत्रु को मित्र बनाने की कला | Shatru Ko Mitr Bnane Ki Klaa : दक्षिण दिशा में महिलारोप्य नामक एक नगर था। उसके निकट ही एक ऊंचा और विशाल बरगद का पेड़ था । अनेक पक्षी उसके फल खाते थे। उसके कोटर (खोखल) में अनेक छोटे-छोटे जीव – जन्तु रहते थे। यात्री उसकी छाया में विश्राम करते थे. उसी वृक्ष पर एक कौआ रहता था। उसका नाम लघुपतनक था। एक बार भोजन की तलाश में वह नगर की ओर उड़कर जा रहा था। रास्ते में उसने एक ऐसा व्यक्ति देखा जो यमदूत की तरह डरावना था। वह हाथ में जाल लिए उसी बरगद के वृक्ष की ओर जा रहा था। कौए ने सोचा कि यह वधिक निश्चय ही जाल फेंककर और चावलों के दाने बिखेरकर उस वृक्ष के पक्षियों का शिकार करेगा। यह सोचकर वह कौआ अपने वृक्ष पर वापस लौट आया। उसने सब पक्षियों को शिकारी, जाल और चावल के विषय में सावधान कर दिया।

Also Check : Horror Messages in Hindi

शत्रु को मित्र बनाने की कला | Shatru Ko Mitr Bnane Ki Klaa
शत्रु को मित्र बनाने की कला | Shatru Ko Mitr Bnane Ki Klaa : वधिक उस वृक्ष के निकट पहुंचा। उसने अपना जाल बिछाया और चावल के दाने बिखेर दिए। पक्षियों ने लघुपतनक की बात याद रखी, वे उस जाल में नहीं फंसे। तभी कबूतरों का एक विशाल झुंड वहां आया। इस झुंड का स्वामी था चित्रग्रीव। लघुपतनक ने उसे भी समझाया, किंतु कौए के समझाने पर भी वह और उसका परिवार चावलों के लालच में जाल में फंस गया। इतने सारे कबूतरों को अपने जाल में फंसा देखकर शिकारी हर्षित हो गया। अपना डंडा लिए वह उन्हें मारने के लिए आगे त्नपका | मृत्यु को अपने निकट आते देखकर भी चित्रग्रीव ने अपना धैर्य न खोया। उसने अपने साथी कबूतरों से कहा – ‘हमें भयभीत नहीं होना चाहिए। हम सबको एक साथ उड़कर जाल को ऊपर ले जाना चाहिए, तभी हमारी मुक्ति हो सकती है।’ अपने राजा का आदेश सुनते ही सभी कबूतर जाल को लेकर आकाश में उड़ गए। शिकारी यह सोचता हुआ उनके पीछे भागा कि अभी तो इन पक्षियों में आपस में सहयोग है, जब ये आपस में लड़ेंगे, तभी इनका पतन होगा।

Also Check : Good Morning Wishes in Hindi 

शत्रु को मित्र बनाने की कला | Shatru Ko Mitr Bnane Ki Klaa : लघुपतनक उत्सुकता से यह सब देख रहा था। जाल समेत कबूतर उड़ते चले गए।
शिकारी निराश होकर सोचने लगा कि पक्षी तो मिले नहीं, जीविका का साधन जाल भी हाथ से जाता रहा। कुछ आगे जाने पर, चित्रग्रीव ने जब यह देखा कि शिकारी बहुत पीछे छूट गया है, तो उसने अपने साथियों से कहा – ‘हम लोगों को नगर की पूर्वोतर दिशा की ओर बढ़ना है। वहां जंगल के बीच मेरा एक मित्र चूहा रहता है। उसका नाम हिरण्यक है। वह इस जाल को काटकर हमें मुक्त कर देगा|
वे सब हिरण्यक के पास पहुंचे।

बिल के पास पहुंचकर चित्रग्रीव ने हिरण्यक को पुकारा— ‘मित्र हिरण्यक ! शीघ्र आओ, मैं बहुत संकट में हूँ।’

Also Check : Love Kahani in Hindi

शत्रु को मित्र बनाने की कला | Shatru Ko Mitr Bnane Ki Klaa : अपने मित्र की आवाज पहचानकर हिरण्यक बिना किसी भय के अपने बिल से बाहर निकल आया। जाल में फंसे अपने मित्र पर निगाह पड़ते ही उसने चिंतित स्वर में पूछा-‘‘यह सब कैसे हो गया मित्र ?’ ‘बस कुछ न पूछो।” चित्रग्रीव बोला-‘जीभ के स्वाद के लालच में यह सहन करना पड़ा। अब तुम शीघ्रता से हमारे बंधन काट दो।’ हिरण्यक कहने लगा – ‘वैसे तो पक्षी सौ – सवा सी योजन से भी मांस को देख भी आप लोग देख नहीं पाए।’ यह कहकर हिरण्यक चित्रग्रीव के बंधन काटने के लिए उसके समीप पहुंचा तो चित्रग्रीव बोला – ‘नहीं मित्र ! पहले मेरे अनुचरों के बंधन काट दी| उसके बाद मेरे बंधन काट देना|” हिरण्यक को कुछ रोष आ गया। उसने कहा-‘नहीं, यह ठीक नहीं। स्वामी के बाद ही सेवकों का स्थान आता है|” चित्रग्रीव बोला-‘नहीं मित्र ! ऐसा सोचना उचित नहीं है। ये सभी मेरे आश्रित हैं। ये सब अपने-अपने परिवारों को छोड़कर मेरे साथ आए हैं।

Also Check : Motivational Thoughts for Students with Explanation 

शत्रु को मित्र बनाने की कला | Shatru Ko Mitr Bnane Ki Klaa : मेरा कर्तव्य यह है कि मैं पहले इनको मुक्त कराऊं। जो राजा अपने अनुचरों का सम्मान करता है, उसके अनुचर विपत्ति पड़ने पर भी उसका साथ नहीं छोड़ते। और फिर ईश्वर न करे, मेरे बंधन काटते समय तुम्हारा दांत टूट गया या तब तक शिकारी ही यहां आ पहुंचा, तब इनके बंधे रह जाने से तो मुझे नरक में भी स्थान नहीं मिलेगा।’ चित्रग्रीव की बात सुनकर हिरण्यक बोला-मित्र ! राजधर्म तो मैं भी जानता हूं। मैं तो आपकी परीक्षा ले रहा था। अब मैं पहले आपके साथियों के ही बंधन कार्टूगा। अपने इस आचरण से आपका यश हमेशा बढ़ता ही रहेगा।’ कुछ ही प्रयास के बाद हिरण्यक ने सभी कबूतरों के बंधन काट डाले, फिर वह चित्रग्रीव से बोला – ‘अब तुम स्वतंत्र हो मित्र। अपने साथियों के साथ जहां जाना चाहो, जा सकते हो। जब भी इस प्रकार की कोई मुसीबत तुम्हारे ऊपर आए, मेरा स्मरण कर लेना|” चित्रग्रीव ने अपने मित्र को धन्यवाद दिया और अपने झुंड सहित अपने गंतव्य की ओर उड़ गया। हिरण्यक भी फिर से अपने बिल में घुस गया।

Also Check : you know what! आप बेवकूफ बन गए!!! | Motivational Speeches in Hindi language

शत्रु को मित्र बनाने की कला | Shatru Ko Mitr Bnane Ki Klaa : लघुपतनक नाम का वह कौआ यह सब देखकर आश्चर्यचकित हो उठा। उसने सोचा- “यह चूहा तो बहुत बुद्धिमान है। इसने सौ द्वार वाला अपना बिल भी किलेनुमा बनाया हुआ है, ताकि शत्रु यदि एक ओर से हमला करे तो यह किसी अन्य द्वार से निकलकर सुरक्षित स्थान पर पलायन कर सके। यद्यपि मेरा स्वभाव किसी पर सहसा ही विश्वास कर लेने का नहीं, तथापि मैं इस चूहे को अपना मित्र अवश्य बनाऊंगा।’ यह सोचकर वह वृक्ष से उतरा और हिरण्यक के बिल के पास पहुंचा। उसने अपनी वाणी में मधुरता घोलते हुए आवाज लगाई – मित्र हिरण्यक, बाहर आ जाओ।” हिरण्यक सोचने लगा कि क्या किसी कबूतर का बंधन रह गया है? उसने बिल के अंदर से ही पूछा- “आप कौन हैं ?’ ‘मैं लघुपतनक नाम का कौआ हूं।’ हिरण्यक बिल के अंदर से बोला – ‘मैं तुमसे नहीं मिलना चाहता। तुम यहां से चले जाओ।” लघुपतनक बोला – ‘हिरण्यक ! मुझसे डरो मत मित्र। मैंने तुमको चित्रग्रीव और उसके साथियों को बंधनमुक्त करते देखा है। इसी प्रकार तुम मेरी भी सहायता कर सकते हो।

Also Check : Best Motivational Speech in Hindi 

शत्रु को मित्र बनाने की कला | Shatru Ko Mitr Bnane Ki Klaa : मैं तुमसे मित्रता करना चाहता हूं भाई।’ ‘पर तुम तो भक्षक हो और मैं तुम्हारा भोजन हूं। हमारी – तुम्हारी मित्रता संभव नहीं है।’ इस बार अपने बिल में से थोड़ा – सा मुंह निकालकर हिरण्यक ने कहा। कौआ बोला-देखो, अगर तुम मेरे साथ मित्रता नहीं करोगे तो मैं तुम्हारे बिल के द्वार पर ही अपनी जान दे दूंगा।’ ‘लेकिन तुम तो मेरे शत्रु हो।’ हिरण्यक बोला —’शत्रु के साथ कोई कैसे मित्रता कर सकता है ?’ इस पर कौआ बोला-‘पर अभी तो मुझे आपका दर्शन भी नहीं मिला, अभी वैर कहां से आ गया!’ यह सुनकर हिरण्यक चूहा बोला – ‘वैर दो प्रकार का होता है। कृत्रिम और स्वाभाविक। तुम तो मेरे स्वाभाविक वैरियों में से हो।’ ‘कृपया दोनों प्रकार के वैरों के लक्षण तो बताइए ?’ हिरण्यक ने बताया-‘जो वैर किसी कारण से उत्पन्न होता है, वह कृत्रिम कहलाता है। वह समाप्त होने योग्य उपकार से समाप्त हो जाता है। किंतु जो स्वाभाविक वैर है, वह तो कभी भी समाप्त नहीं होता। जिस प्रकार नेवले और सर्प का, घास चरने वाले व मांसाहारी जीवों का, जल और अग्नि का, देव और दैत्यों का, सिंहों और हाथियों का, बाघ एवं हिरणों का, सज्जनों एवं दुर्जनों का। इनका वैर स्वाभाविक वैर कहलाता है। ‘ इस पर लघुपतनक बोला – ‘मैं इसे ठीक नहीं मानता।

Also Check : Vivekananda Motivational Quotes

शत्रु को मित्र बनाने की कला | Shatru Ko Mitr Bnane Ki Klaa : किसी के साथ मित्रता और शत्रुता तो कारण से ही की जाती है, अतः किसी से अकारण शत्रुता नहीं करनी चाहिए। यदि संभव हो तो इस संसार में सभी के साथ मित्रता की जानी चाहिए। अत: मेरे साथ मित्रता करने के लिए आप एक बार बाहर निकलकर मेरे साथ भेट तो कर लीजिए।’ ‘इसकी आवश्यकता ही क्या है ? नीतिशास्त्र में कहा है कि एक बार भी मित्रता इस देश में अकाल पड़ गया है। अकाल के कारण जब लोग स्वयं ही भूखे रहते हैं तो हमें भोजन कहां से मिले ! लोगों की भूख इतनी बढ़ गई है कि अब घर – घर में पक्षियों को फंसाने के लिए लोगों ने जाल फैला दिए हैं। वह तो मेरी आयु के कुछ दिन शेष रहे होंगे, तभी मैं उनसे बचकर निकल आया हूं, अन्यथा आज तो मेरा पकड़ा जाना भी निश्चित था। बस मेरी विरक्ति का यही कारण है। अपने घर से तो मैं विदेश के लिए निकलकर आ गया हूं।’ ‘कहां जाना चाहते हो ?’ ‘दक्षिण देश के एक दुर्गम वन में एक सरोवर है। वहां मेरा मित्र मंथरक नाम का कछुआ रहता है। वह अपने सरोवर से मुझे मछली आदि ला दिया करेगा। इस तरह से मेरे दुर्दिन अच्छी तरह से कट जाएंगे।’ में भी दुसरे साथ बढुंग” , मुझे भी ये एक बड़ा कष्ट हैं। ‘ ‘यह एक लम्बी कहानी है। वहीं पहुंचने पर सुनाऊंगा।’

Also Check : Broken Quotations

शत्रु को मित्र बनाने की कला | Shatru Ko Mitr Bnane Ki Klaa : किंतु मैं तो उड़ने वाला जीव हूं। तुम मेरे साथ किस प्रकारे चल पाओगे? ‘तुम मुझे अपना मित्र समझते हो तो मुझे अपनी पीठ पर बिठाकर ले चलते। अन्यथा मेरी कोई दूसरी गति नहीं है।’ कौए ने प्रसन्न होकर कहा – ‘वाह ! यह तो मेरा सौभाग्य है। वहां रहकर आपके साथ सुख के दिन व्यतीत होंगे। बस तुम मेरी पीठ पर आराम से बैठ जाना। मैं तुम्हें आराम से वहां तक पहुंचा दूंगा।’, ‘पर क्या तुम्हें उड़ने की सभी रीतियों का ज्ञान है ? कहीं ऐसा न हो कि रास्ते में ही मुझे गिरा दो और भूमि पर ऊंचाई से गिरने के कारण मेरा प्राणान्त हो जाए।’ इस पर कौआ बोला – ‘तुम्हारी शंका निराधार है मित्र। सुनो, उड़ने की गतियां ऊध्र्वगति एवं लघुगति। और मुझे इन सभी गतियों का अच्छी तरह से ज्ञान है।’ कौए की बात सुन हिरण्यक की चिंता दूर हो गई। वह खुशी – खुशी कौए की पीठ पर चढ़ गया। कौआ धीरे – धीरे उड़कर उसे सरोवर के पास ले गया। मंथरक ने उसको इस प्रकार आते देखकर सोचा- “यह तो कोई असाधारण प्रकार का कौआ लगता है।’ वह डर गया और सरोवर में जाकर छिप गया। लघुपतनक ने हिरण्यक को सरोवर के तट पर स्थित एक वृक्ष के कोटर में बैठा दिया और स्वयं उसी की शाखा पर बैठकर अपने मित्र मंथरक को पुकारना आरंभ कर दिया।

Also Check : Success in Hindi

शत्रु को मित्र बनाने की कला | Shatru Ko Mitr Bnane Ki Klaa : अपने मित्र की आवाज पहचानकर कछुआ जल से बाहर आया। दोनों मित्र एक – दूसरे से मिलकर बहुत प्रसन्न हुए। हिरण्यक भी कोटर से निकलकर उनके समीप आ बैठा। उसे देखकर मंथरक ने पूछा-मित्र ! यह कौन है ? तुम्हारा भक्ष्य होने पर भी तुम इसे अपनी पीठ पर बैठाकर लाए हो, इसका क्या रहस्य है ?
कौए ने बताया – मित्र मंथरक ! यह मेरा परम मित्र है। यूं समझ लो, हम दोनों दो तन एक प्राण हैं। हिरण्यक नाम है इसका। इसमें असंख्य गुण हैं। किसी कारण से अपने स्थान से हमें विरक्ति हो गई है, इसलिए अब आपके पास चले आए हैं। ‘
‘इनके वैराग्य का क्या कारण है ?’ मंथरक ने पूछा।
कौए ने चूहे की ओर देखकर पूछा-मित्र, अब तो तुम सुरक्षित यहां पहुंच गए हो। अपने वैराग्य का कारण तो बताओ । ‘ तब हिरण्यक चूहे ने उन्हें कारण बताना आरंभ किया।

Also Check : Antrashtriya Yoga Diwas

Related Posts

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.