दो फूल महादेवी वर्मा के द्वारा | Do Phool

do phool

फागुन की गुलाबी जाड़े की वह सुनहली संध्या क्या भुलायी जा सकती है ! सवेरे के पुलकपंछी वैतालिक एक लयवती उड़ान में अपने-अपने नीड़ों की ओर लौट रहे थे। विरल बादलों के अन्ताल से उन पर चलाए हुए सूर्य के सोने के शब्दवेधी बाण उनकी उन्माद गति में ही उलझ कर लक्ष्य-भ्रष्ट हो रहे थे। पश्चिम में रंगों का उत्सव देखते-देखते जैसे ही मुँह फेरा कि नौकर सामने आ खड़ा हुआ। पता चला, अपना नाम न बताने वाले एक वृद्ध मुझसे मिलने की प्रतीक्षा में बहुत देर से बाहर खड़े हैं। उनसे सवेरे आने के लिए कहना अरण्य रोदन ही हो गया।

मेरी कविता की पहली पंक्ति ही लिखी गई थी, अतः मन खिसिया-सा आया। मेरे काम से अधिक महत्त्वपूर्ण कौन-सा काम हो सकता है, जिसके लिए असमय में उपस्थित होकर उन्होंने मेरी कविता को प्राण प्रतिष्ठा से पहले ही खण्डित मूर्ति के समान बना दिया ! ‘मैं कवि हूं’ में जब मेरे मन का सम्पूर्ण अभिमान पुञ्जीभूत होने लगा, तब यदि विवेक का ‘पर मनुष्य नहीं’ में छिपा व्यंग बहुत गहरा न चुभ जाता तो कदाचित् मैं न उठती। कुछ खीझी, कुछ कठोर-सी मैं बिना देखे ही एक नई और दूसरी पुरानी चप्पल में पैर सामने निस्तब्ध और निर्वाक हो रही। बचपन में मैंने कभी किसी चित्रकार का बनाया कण्वऋषि का चित्र देखा था-वृद्ध में मानो वह सजीव हो गया था। सफेद बाल और दूधफेनी सी सफेद दाढ़ी वाला वह मुख झुर्रियों के कारण समय का अंकगणित हो रहा था। कभी की सतेज आंखें आज ऐसी लग रही थीं, मानो किसी ने चमकीले दर्पण पर फूंक मार दी हो। एक क्षण में ही उन्हें धवल सिर से लेकर धूल भरे पैरों तक, कुछ पुरानी काली चप्पलों से लेकर पसीने और मैल की एक बहुत पतली कोर से युक्त खादी की धुली टोपी तक देखकर कहा-‘आप को पहचानी नहीं।’ अनुभवों से मलिन, पर आंसुओं से उजली उनकी दृष्टि पल भर को उठी, फिर कांस के फूल जैसी बरौनियों वाली पलकें झुक आईं-न जाने व्यथा के भार से, न जाने लज्जा से।

एक क्लान्त पर शान्त कण्ठ ने उत्तर दिया-‘जिसके द्वार पर आया है उसका नाम जानता है, इससे अधिक मांगने वाले का परिचय क्या होगा ? मेरी पोती आपसे एक बार मिलने के लिए बहुत विकल है। दो दिन से इसी उधेड़बुन में पड़ा था। आज साहस करके आ सका हूं-कल तक शायद साहस न ठहरता इसी से मिलने के लिए हठ कर रहा था। पर क्या आप इतना कष्ट स्वीकार करके चल सकेंगी ? तांगा खड़ा है।’

मैं आश्चर्य से वृद्ध की ओर देखती रह गई-मेरे परिचित ही नहीं, बल्कि अपरिचित भी जानते हैं कि मैं सहज ही कहीं आती-जाती नहीं। यह शायद बाहर से आए हैं। पूछा-‘क्या वह नहीं आ सकतीं ?’ वृद्ध के लज्जित होने का कारण मैं न समझ सकी। उनके होंठ हिले; पर कोई स्वर न निकल सका और मुंह फेर कर गीली आंखों को छिपाने की चेष्टा करने लगे। उनका कष्ट देखकर मेरी बीमारी के सम्बन्ध में प्रश्न करना स्वाभाविक ही था। वृद्ध ने नितान्त हताश मुद्रा में स्वीकृतिसूचक मस्तक हिलाकर कुछ बिखरे से शब्दों में यह स्पष्ट कर दिया कि उनके एक पोती है जो आठ की अवस्था में मातृ-पितृहीन और ग्यारहवें वर्ष में विधवा हो गई थी।

अधिक तर्क-वितर्क का अवकाश नहीं था-सोचा वृद्ध की पोती अवश्य ही मरणासन्न है ! बेचारी अभागी बालिका ! पर मैं तो कोई डाक्टर या वैद्य नहीं हूं और मुंडन, कनछेदन आदि में कवि को बुलाने वाले रोग अभी उसे गीतावाचक के समान अन्तिम समय में बुलाना नहीं सीखे हैं। वृद्ध जिस निहोरे के साथ मेरे सुख का प्रत्येक भाव परिवर्तन देख रहे थे, उसी ने मानो कण्ठ से बलात् कहला दिया-चलिए, किसी को साथ ले लूं, क्योंकि लौटते-लौटते अंधेरा हो जाएगा।’

नगर की शिराओं के समान फैली और एक- दूसरी से उलझी हुई गलियों से जिनमें दूषित रक्त जैसा नालियों का मैला पानी बहता है और रोग की कीटाणुओं की तरह नये मैले बालक घूमते हैं, मेरा उस दिन विशेष परिचय हुआ। किसी प्रकार का एक तिमंजिले मकान की सीढ़ियां पार कर हम लोग ऊपर पहुंचे। दालान में ही मैली फटी दरी पर, खम्भे का सहारा लेकर बैठी हुई एक स्त्री मूर्ति दिखाई दी, जिसकी गोद में मैले कपड़ों में लिपटा एक पिण्ड-सा था। वृद्ध मुझे वही छोड़कर भीतर के कमरे को पार कर दूसरी ओर के छज्जे पर जा खड़े हुए, जहां से उनके थके शरीर और टूटे मन को द्वंद्व धुंधले चलचित्र का कोई मूक, पर करुण दृश्य बनने लगा।

एक उदासीन कण्ठ से ‘आइए’ में निकट आने का निमन्त्रण पाकर मैंने अभ्यर्थना करने वाली की ओर ध्यान से देखा। वृद्ध से उसकी मुखाकृति इतनी मिलती थी कि आश्चर्य होता था। वही मुख की गठन, उसी प्रकार के चमकीले पर धुंधले नेत्र और वैसे ही कांपते ओंठ। रूखे बाल और मलिन वस्त्रों में उसकी कठोरता वैसी ही दयनीय जान पड़ती थी, जैसी जमीन में बहुत दिन गड़ी रहने के उपरान्त खोदकर निकाली हुई तलवार। कुछ खिजलाहट भरे स्वर में कहा-बड़ी दया की पिछले पांच महीने से हम जो कष्ट उठा रहे हैं, उसे भगवान ही जानते हैं। अब जाकर छुट्टी मिली है; पर लड़की का हठ तो देखो। अनाथालय में देने के नाम से बिलखने लगती है, किसी और के पास छोड़ आने की चर्चा से अन्न-जल छोड़ बैठती है। बार-बार समझाया कि जिससे न जान, न पहचान उसे ऐसी मुसीबत में घसीटना कहां की भलमनसाहत है; पर यहां सुनता कौन है ! लालाजी बेचारे तो संकोच के मारे जाते ही नहीं थे; पर जब हार गये, तब झक मार कर जाना पड़ा। अब आप ही उद्धार करें तो प्राण बचे।’ इस लम्बी-चौड़ी सारगर्भित भूमिका से अवाक् मैं जब कुछ प्रकृतिस्थ हुई तब वस्तुस्थिति मेरे सामने धीरे-धीरे वैसे ही स्पष्ट होने लगी, जैसे पानी में कुछ देर रहने पर तल की वस्तुएं। यदि यह न कहूं कि मेरा शरीर सिहर उठा था, पैर अवसन्न हो रहे थे और माथे पर पसीने की बूंदें आ गई थीं, तो असत्य कहना होगा।

सामाजिक विकृति का बौद्धिक निरूपण मैंने अनेक बार किया है; पर जीवन की एक विभीषिका से मेरा यही पहला साक्षात् था। मेरे सुधार सम्बन्धी दृष्टिकोण को लक्ष्य करके परिवार में प्रायः सभी ने कुछ निराश भाव से सिर हिलाकर मझे यह विश्वास दिलाने का प्रयत्न किया कि मेरी सात्विक कला इस लू का झोंका न सह सकेगी और साधना की छाया में पले मेरे कोमल सपने इस धुएं में जी न सकेंगे। मैंने अनेक बार सबको यही एक उत्तर दिया है कि कीचड़ से कीचड़ को धो सकना न सम्भव हुआ है न होगा; उसे धोने के लिए निर्मल जल चाहिए। मेरा सदा से विश्वास रहा है कि अपने दलों पर मोती-सा जल भी न ठहरने देने वाली कमल की सीमातीत स्वच्छता ही उसे पंक में जमने की शक्ति देती है।

यह भी पढ़े: Mahadevi Verma | महादेवी वर्मा का जीवन परिचय और कविताएँ

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